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एकसप्ततितमं पर्व
एवमुक्त्वा समुत्पत्य पुरोऽस्य मृगराजवत् । महिषीं सर्वतोऽभीष्टां प्राप्तप्रवणवेपथुम् ॥७०॥ विलोलनयनां वेण्यां गृहीत्वाऽत्यन्तकातराम् । आचकर्ष यथा राजलक्ष्मीं भरतपार्थिवः ॥ ७१ ॥ जगौ च शूर सेयं ते दयिता जीवितादपि । मन्दोदरी महादेवी हियते गुणमेदिनी ॥ ७२ ॥ इयं विद्याधरेन्द्रस्य सभामण्डपवर्त्तिनः । चामरग्राहिणी चार्वी सुग्रीवस्य भविष्यति ॥ ७३ ॥ ततोऽसौ कम्पविखंसिस्तनकुम्भतटांशुकम् । समाहितं मुहुस्तन्वी कुर्वती चलपाणिना ॥ ७४ ॥ बाध्यमानाधरा नेत्रवारिणानन्तरं स्रुता । चलभूषण निःस्वानमुखरीकृत विग्रहा ॥७५॥ सजन्ती पादयोर्भूयः प्रविशन्ती भुजान्तरम् । दैन्यं परममापन्ना भर्त्तारमिदमभ्यधात् ॥७६॥ श्रायस्व नाथ किन्त्वेतामवस्थां मे न पश्यसि । किमन्य एव जातोऽसि नासि सः स्याद्दशानन ॥ अहो ते वीतरागत्वं निर्ग्रन्थानां समाश्रितम् । ईदृशे सङ्गते दुःखे किमनेन भविष्यति ॥ ७८ ॥ धिगस्तु तव वीर्येण किमपि ध्यानमीयुपः । यदस्य पापचेष्टस्य छिनसि न शिरोऽसिना ॥७६॥ चन्द्रादित्यसमानेभ्यः पुरुषेभ्यः पराभवम् । नासि सोढाऽधुना कस्मात्सहसे क्षुद्रतोऽमुतः ॥ ८०॥ लङ्केश्वरस्तु सङ्गाढध्यानसङ्गतमानसः । न किञ्चिदवणोनापि पश्यतिस्म सुनिश्वयः ॥ ८१ ॥ अर्द्धकसंविष्टो दूरस्थापितमत्सरः । मन्दरोरुगुहायातरत्नकूट महाद्युतिः ॥ ८२ ॥ सर्वेन्द्रियक्रियामुक्तो विद्याराधनतत्परः । निष्कम्पविग्रहो धीरः स ह्यासीत्पुस्तकायवत् ॥८३॥ विद्यां विचिन्तयन्नेप मैथिलीमिव राघवः । जगाम मन्दरस्याद्रेः स्थिरत्वेन समानताम् ॥८४॥
प्रतीकार कर ॥ ६८-६६ ॥ इस प्रकार कह वह सिंहके समान रावणके सामने उछला और जो उसे सबसे अधिक प्रिय थी, जो भयसे काँप रही थी, जिसके नेत्र अत्यन्त चञ्चल थे और जो अत्यन्त कातर थी ऐसी पट्टरानी मन्दोदरीकी चोटी पकड़कर उस तरह खींच लाया जिस तरह कि राजा भरत राजलक्ष्मीको खींच लाये थे ॥७०-७१ ॥ तदनन्तर उसने रावणसे कहा कि हे शूर ! जो तुझे प्राणोंसे अधिक प्यारी है तथा जो गुणोंकी भूमि है, ऐसी यह वही मन्दोदरी महारानी हरी जा रही है || ७२ || यह सभामण्डप में वर्तमान विद्याधरोंके राजा सुग्रीवकी उत्तम चमर ढोलनेवाली होगी ॥ ७३ ॥ तदनन्तर जो कँपकँपीके कारण खिसकते हुए स्तनतटके वस्त्रको अपने चञ्चल हाथसे बार-बार ठीक कर रही थी, निरन्तर भरते हुए अश्रुजलसे जिसका अधरोष्ठ वाधित हो रहा था और हिलते हुए आभूषणों के शब्दसे जिसका समस्त शरीर शब्दायमान हो रहा था ऐसी कृशाङ्गी मन्दोदरी परमदीनताको प्राप्त हो कभी भर्तारके चरणों में पड़ती और कभी भुजाओं के मध्य प्रवेश करती हुई भर्तार से इस प्रकार बोली कि ।।७४-७६ ।। हे नाथ ! मेरी रक्षा करो, क्या मेरी इस दशाको नहीं देख रहे हो ? क्या तुम और ही हो गए हो ? क्या अब तुम वह दशानन नहीं रहे ? ||७|| अहो ! तुमने तो निर्ग्रन्थ मुनियों जैसी वीतरागता धारण कर ली पर इस प्रकार के दुःख उपस्थित होने पर इस वीतरागता से क्या होगा ? ॥ ७८ ॥ कुछ भी ध्यान करनेवाले तुम्हारे इस पराक्रमको धिक्कार हो जो खङ्गसे इस पापीका शिर नहीं काटते हो ॥ ७१ ॥ जिसे तुमने पहले कभी चन्द्र और सूर्यके समान तेजस्वी मनुष्यों से प्राप्त होनेवाला पराभव नहीं सहा सो इस समय इस क्षुद्र से क्यों सह रहे हो ? ॥८०॥ यह सब हो रहा था परन्तु रावण निश्चय के साथ प्रगाढ़ ध्यान में अपना चित्त लगाये हुआ था वह मानो कुछ सुन ही नहीं रहा था । वह अर्धपर्यास से बैठा था, मत्सरभावको उसने दूर कर दिया था, मन्दरगिरिकी विशाल गुफाओंसे प्राप्त हुई रत्नराशिके समान उसकी महाकान्ति थी, वह समस्त इन्द्रियों की क्रियासे रहित था, विद्याकी आराधना में तत्पर था, निष्कम्प शरीरका धारक था, अत्यन्त धीर था और ऐसा जान पड़ता था मानो मिट्टी का पुतला ही हो ॥८२-८३|| जिस प्रकार राम सीताका ध्यान
१. विलोभ म० ।
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