________________
सप्ततितमं पर्व
आर्याच्छन्दः
सम्प्राप्योपालम्भं लक्ष्मणवचनात् सुलजितौ तौ हि । सञ्जातौ समचित्तौ निर्व्यापारौ स्थितौ येन ॥ १०० ॥ तावद्भवति जनानामधिका प्रीतिः समाश्रयासन्ना । यानिर्दोषत्वं रवि मिच्छति कः सहोत्पातम् ॥ १०१ ॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्य प्रो के पद्मपुराणे सम्यग्दृष्टिदेवप्रातिहार्य कीर्तनं नाम सप्ततितमं पर्व ॥ ७० ॥
सेवकों के साथ अन्तहित हो गये ||६८-६६ ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि देखो, जो यक्षेन्द्र उलाहना देने आये थे वे लक्ष्मणके कहनेसे अत्यन्त लज्जित होते हुए समचित्त होकर चुपचाप बैठ रहे ||१००|| जब तक निर्दोषता है तभी तक निकटवर्ती पुरुषोंमें अधिक प्रीति रहती है सो ठीक ही है क्यों कि उत्पात सहित सूर्यकी कौन इच्छा करता है ? अर्थात् कोई नहीं । भावार्थ - जिस प्रकार लोग उत्पात रहित सूर्यको चाहते हैं उसी प्रकार दोष रहित निकटवर्ती मनुष्यको चाहते हैं ॥ १०१ ॥
इस प्रकार नामसे प्रसिद्ध, रविषेणचार्य कथित पद्मपुराण में सम्यग्दृष्टि देवोंके प्रातिहार्यपनेका वर्णन करने वाला सतरवाँ पर्व समाप्त हुआ || ७० ॥
Jain Education International
२३
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org