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सप्ततितमं पर्व
क्रुद्धो मयमहादैत्यः पिनद्धकवचो द्रुतम् । सन्नद्धैः सचिवैः साद्धं समुन्नतपराक्रमः॥४४॥ युद्धार्थमुद्यतो दीप्तः प्राप लकेशमन्दिरम् । श्रीमान् हरिणकेशीव सुनाशीरनिकेतनम् ॥४५॥ ऊचे मन्दोदरी तं च कृत्वा निर्भर्सनं परम् । कर्तव्यं तात नैतत्ते दोषार्णवनिमजनम् ॥१६॥ समयो घोष्यमाणोऽसौ जैनः किं न त्वया श्रुतः । प्रसादं कुरु वांछा चेदस्ति स्वश्रेयसं प्रति ॥४७॥ दुहितुः स्वहितं वाक्यं श्रुत्वा दैत्यपतिर्मयः । प्रशान्तः साहारास्त्रं रश्मिचक्रं यथा रविः ।४।। दुर्भेदकवचच्छन्नो मणिकुण्डलमण्डितः । हारराजितवक्षस्को विवेश स्वं जिनालयम् ॥१६॥ उद्वेलसागराकाराः कुमारास्तावदागताः । प्राकारं वेगवातेन कुर्वन्तः शिखरोज्झितम् ॥५०॥ भग्नवज्रकपाटं च कृत्वा गोपुरमायतम् । प्रविष्टा नगरी धीरा महोपद्रवलालसाः ॥५१॥ इमे प्राप्ता दतं नश्यक यानि प्रविशालयम् । हा मातः किमिदं प्राप्तं तात तात निरीक्ष्यताम् ॥५२॥ त्रायस्थ भद्र हा भ्रातः किं किं ही ही कथं कथम् । आर्यपुत्र निवर्तस्व तिष्ठ हा हा महद्भयम् ॥५३।। एवं प्रवृत्तनिस्वानराकुलेनगरीजनैः । सन्त्रस्तैर्दशवक्त्रस्य भवनं परिपूर्णता ॥५४॥ काचिद्विगलितां काञ्चीमाक्रम्यात्यन्तमाकुला । स्वेनैव चरणेनान्ते जानुखण्डं गता भुवि ॥५५॥ हस्तालम्बितविस्तवसनान्यतिविह्वला । गृहीतपृथुका तन्वी चकम्प गन्तुमुद्यता ॥५६॥. सम्भ्रमत्रुटितस्थूलमुक्तानिकरवर्षिणी । मेघरेखेव काचित्तु प्रस्थिता वेगधारिणी ॥५७॥
प्राप्त थे तथा सब ओरसे घबड़ाहटके शब्द सुनाई पड़ रहे थे तब क्रोधसे भरा एवं उन्नत पराक्रमका धारी, मन्दोदरीका पिता मयनामक महादैत्य कवच पहिनकर, कवच धारण करनेवाले मन्त्रियों के साथ युद्धके लिए उद्यत हो देदीप्यमान हुआ रावणके भवनमें उस प्रकार पहुँचा जिस प्रकार कि श्रीसम्पन्न हरिणकेशी इन्द्रके भबन आता है, ॥४३-४५॥ तब मन्दोदरीने पिताको बड़ी डाँट दिखाकर कहा कि हे तात ! इस तरह आपको दोषरूपी सागरमें निमज्जन नहीं करना चाहिए ॥४६।। जिसकी घोषणा की गई थी ऐसा जैनाचार क्या तुमने सुना नहीं था। इसलिए यदि अपनी भलाई चाहते हो तो प्रसाद करो-शान्त होओ ॥४७॥ पुत्रीके स्वहितकारी वचन सुनकर दैत्यपति मयने शान्त हो अपना शस्त्र उस तरह संकोच लिया जिस तरह कि सूर्य अपनी किरणोंके समूहको संकोच लेता है ॥४८।। तदनन्तर जो दुर्भेद्य कवचसे आच्छादित था, मणिमय कुण्डलोंसे अलंकृत था और जिसका वक्षःस्थल हारसे सुशोभित था ऐसे मयने अपने जिनालयमें प्रवेश किया ।।४६॥
इतने में ही उद्वेलसागरके समान आकारको धारण करनेवाले कुमार, वेग सम्बन्धी वायुसे प्राकारको शिखर रहित करते हुए आ पहुँचे ॥५०॥ महान् उपद्रव करनेमें जिनकी लालसा थी ऐसे वे धीर वीर कुमार, लम्बे-चौड़े गोपुरके वनमय किवाड़ तोड़कर नगरीके भीतर घुस गये ॥५१॥ उनके पहुंचते ही नगरीमें इस प्रकारका हल्ला मच गया कि 'ये आ गए', 'जल्दी भागो' 'कहाँ जाऊँ ? 'घरमें घुस जाओ' 'हाय मातः यह क्या आ पड़ा है ?' 'हे तात! तात! देखो तो सही' 'अरे भले आदमी बचाओ' हे भाई ! 'क्या क्या' ही हो' क्यों क्यों' हे आर्य पुत्र ! लौटो, ठहरो, हाय हाय बड़ा भय है' इस प्रकार भयसे व्याकुल हो चिल्लाते हुए नगरवासियोंसे राबणका भवन भर गया ।।५२-५४॥ कोई एक स्त्री इतनी अधिक घबड़ा गई थी कि वह अपनी गिरी हुई मेखलाको अपने ही पैरसे लाँघती हुई आगे बढ़ गई और अन्तमें पृथ्वीपर ऐसी गिरी कि उसके घुटने टूट गये ।।५५॥ खिसकते हुए वस्त्रको जिसने हाथसे पकड़ रक्खा था, जो अत्यन्त घबड़ाई हुई थी, जिसने बच्चेको उठा रक्खा था और जो कहीं जानेके लिए तैयार थी ऐसी कोई दुबली-पतली स्त्री भयसे काँप रही थी ।।१६।। हड़बड़ाहटके कारण हारके टूट १. मायनम् म० । २. नश्यत् म । ३. परिपूर्यताम् म० । ४. चित्रात-म० । For Private & Personal Use Only
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