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सप्ततितमं पर्व
सिंहव्याघ्रवरा हे मशरभादियुतान् रथान् । विमानानि तथाऽऽरूढा गृहीतपरमायुधाः ||१४|| कुमाराः प्रस्थिता लङ्कां शङ्कामुत्सृज्य सादराः । रावणक्षोभणाकूता भवनामरभासुराः ॥१५॥ मकरध्वजसाटोपचन्द्राभरतिवर्द्धनाः । वातायनो गुरुभरः सूर्यज्योतिर्महारथः ॥ १६॥ प्रीतिकरो दृढरथः समुन्नतबलस्तथा । नन्दनः सर्वदो दुष्टः सिंहः सर्वप्रियो नलः ॥ १७॥ नील: सागरनिस्वानः ससुतः पूर्णचन्द्रमाः । स्कन्दश्चन्द्रमरीचिश्च जाम्बवः सङ्कटस्तथा ॥१८॥ समाधित्रहुल: सिंहकटिरिन्द्राशनिर्बलः । तुरङ्गशतमेतेषां प्रत्येकं योजितं रथे ॥१६॥ शेषाः सिंहवराहेभव्याघ्रयानैर्मनोजवैः । पदातिपटलांतस्थाः प्रस्थिताः परमौजसः ॥२०॥ नानाचिह्नातपत्रास्ते नानातोरणलान्छनाः । चित्राभिवैजयन्तीभिर्लक्षिता गगनाङ्गणे ॥२१॥ सैन्यार्णवसमुद्भूतमहागम्भीरनिःस्वनाः । आस्तृणाना दिशो मानमुद्वहन्तः समुझताः ॥२२॥ प्राप्ता लङ्कापुरीवाह्योद्देशमेवमचिन्तयन् । आश्चर्यं किमिदं लङ्का निश्चिन्तेयमवस्थिता ॥ २३ ॥ स्वस्थो जनपदोऽमुष्यां सुचेताः परिलक्ष्यते । अवृत्तपूर्वसङ्ग्रामा इव चास्यां भटाः स्थिताः ॥२४॥ अहो लकेश्वरस्येदं धैर्यमत्यन्तमुतम् । गम्भीरत्वं तथा सत्वं श्रीप्रतापसमुन्नतम् ||२५|| बन्दिग्रहणमानीतः कुम्भकर्णो महाबलः । इन्द्रजिन्मेघनादश्च दुर्धरैरपि दुर्धराः || २६ ॥ अक्षाद्या बहवः शूरा नीता निधनमाहवे । न तथापि विभोः शङ्का काचिदस्योपजायते ||२७|| इति सञ्चिन्त्य कृत्वा च समालापं परस्परम् । विस्मयं परमं प्राप्ताः कुमाराः शङ्किता इव ||२८||
युक्त एवं नाना लक्षणोंकी ध्वजाओंसे सुशोभित विद्याधर कुमार सिंह, व्याघ्र, वाराह, हाथी और शरभ आदिसे युक्त रथों तथा विमानों पर आरूढ़ हो निशङ्क होते हुए आदर के साथ लङ्काकी ओर चले । उस समय उत्तमोत्तम शस्त्रोंको धारण करने वाले तथा रावणको कुपित करनेकी भावना से युक्त वे बानर कुमार भवनवासी देवोंके समान देदीप्यमान हो रहे थे ।। १३-१५।। न कुमारोंसे कुछ के नाम इस प्रकार हैं । मकरध्वज, साटोप, चन्द्राभ, वातायन, गुरुभर, सूर्यज्योति, महारथ, प्रीतिङ्कर, दृढ़रथ, समुन्नतबल, नन्दन, सर्वद, दुष्ट, सिंह, सर्वप्रिय, नल, नील, समुद्रघोष, पुत्र सहित पूर्णचन्द्र, स्कन्द, चन्द्ररश्मि, जाम्बव, सङ्कट, समाधि बहुल, सिंहजघन, इन्द्रवत्र और बल । इनमें से प्रत्येकके रथ में सौ-सौ घोड़े जुते हुए थे ।।१६ - १६ ॥ पदातियोंके मध्य में स्थित, परम तेजस्वी शेषकुमार मनके समान वेगशाली सिंह वराह हाथी और व्याघ रूपी वाहनोंके द्वारा लङ्काकी ओर चले ||२०|| जिनके ऊपर नाना चिह्नोंको धारण करने वाले छत्र फिर रहे थे, जो नाना तोरणोंसे चिह्नित थे, आकाशाङ्गणमें जो रङ्ग-विरङ्गी ध्वजाओंसे संहित थे, जिनकी सेनारूपी सागरसे अत्यन्त गम्भीर शब्द उठ रहा था, जो मानको धारण कर रहे थे, तथा अतिशय उन्नत थे ऐसे वे सब कुमार दिशाओंको आच्छादित करते हुए लङ्कापुरीके बाह्य मैदान में पहुँचकर इस प्रकार विचार करने लगे कि यह क्या आश्चर्य है ? जो यह लङ्का निश्चिन्त स्थित है ॥२१-२३॥ इस लङ्काके निवासी स्वस्थ तथा शान्तचित्त दिखाई पड़ते हैं और यहाँ के योद्धा भी ऐसे स्थित हैं मानो इनके यहाँ पहले युद्ध हुआ ही नहीं हो ||२४|| अहो लङ्कापतिका यह विशाल धैर्य, यह उन्नत गाम्भीर्य, और यह लक्ष्मी तथा प्रतापसे उन्नत सत्त्व-बल धन्य हैं ||२५|| यद्यपि महाबलवान् कुम्भकर्ण, इन्द्रजित् तथा मेघनाद वन्दीगृहमें पड़े हुए हैं, तथा प्रचण्ड बलशाली भी जिन्हें पकड़ नहीं सकते थे ऐसे अक्ष आदि अनेक शूर वीर युद्ध में मारे गये हैं तथापि इस धनी को कोई शङ्का उत्पन्न नहीं हो रही है ।।२६-२७।। इस प्रकार विचार कर तथा परस्पर वार्तालाप कर परम आश्चर्यको प्राप्त हुए कुमार हो गये ||२८||
शङ्कितसे
१. द्योतिमहारथः ज० । सूर्यो ज्योतिर्महारथः म० । २ सिंहः कटि म० ।
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