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सप्ततितमं पर्व
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स वृत्तान्तश्चास्येभ्यस्तत्र परबले श्रुतः । ऊचुश्च खेचराधीशा जयप्राप्तिपरायणाः ॥19॥ किल शान्ति जिनेन्द्रस्य प्रविश्य शरणं सुधीः । विद्यां साधयितुं लग्नः स लङ्कापरमेश्वरः ||२|| चतुर्विंशतिभिः सिद्धिं वासरैः प्रतिपद्यते । बहुरूपेति सा विद्या सुराणामपि भञ्जनी ||३|| यावद्भगवती तस्य सा सिद्धिं न प्रपद्यते । तावत् कोपयत क्षिप्रं तं गत्वा नियमस्थितम् ॥ ४ ॥ तस्यां सिद्धिमुपेतायां देवेन्द्रैरपि शक्यते । न स साधयितुं कैव क्षुद्वेध्वस्मासु सङ्कथा ||५|| ततो विभीषणेनोक्तं कर्त्तव्यं वेदिदं ध्रुवम् । द्रुतं प्रारभ्यतां कस्माद्भवद्भिरवलम्ब्यते ||६|| सम्प्रधार्यं समस्तैस्तैः पद्मनाभाय वेदितम् । गदितं च यथा लङ्काप्रस्तावे गृह्यतामिति ॥ ७॥ बाध्यतां रावणः कृत्यं क्रियतां च यथेप्सितम् । इत्युक्तः स जगौ धीरो महापुरुषचेष्टितः ॥ ८ ॥ भीतादिष्वपि न तावत् कर्तुं युक्तं विहिंसनम् । किं पुनर्नियमावस्थे जने जिनगृहस्थिते ॥ ॥ नैषा कुलसमुत्थानां क्षत्रियाणां प्रशस्यते । प्रवृत्तिर्गर्वतुङ्गानां खिन्नानां शस्त्रकर्मणि ॥१०॥ महानुभावधीर्देवो विधर्मे न प्रवर्त्तते । इति प्रधार्यं ते चक्रुः कुमारान् गामिनो रहः ॥ ६१॥ श्वो गन्तास्म इति प्राप्ता अपि बुद्धिं नभश्चराः । अष्टमात्रदिनं कालं सम्प्रधारणया स्थिताः ॥ १२ ॥ पूर्णमास्यां ततः पूर्णशशाङ्कसदृशाननाः । पद्मायतेक्षणा नानालक्षणध्वजशोभिनः ॥ १३ ॥
अथानन्तर 'रावण बहुरूपिणी विद्या साध रहा है।' यह समाचार गुप्तचरोंके मुखसे रामकी सेना में सुनाई पड़ा सो विजय प्राप्त करनेमें तत्पर विद्याधर राजा कहने लगे कि ऐसा सुनने में आया है कि लङ्काका स्वामी रावण श्री शान्ति- जिनेन्द्र के मन्दिर में प्रवेश कर विद्या सिद्ध करनेमें लगा हुआ है ॥१-२॥ वह बहुरूपिणी विद्या चौबीस दिनमें सिद्धिको प्राप्त होती है तथा देवोंका भी मद भञ्जन करनेवाली है ||३|| इसलिए वह भगवती विद्या जब तक उसे सिद्ध नहीं होती है तब तक शीघ्र ही जाकर नियम में बैठे रावणको क्रोध उत्पन्न करो ||४|| बहुरूपिणी विद्या सिद्ध हो जाने पर वह इन्द्रोंके द्वारा भी नहीं जीता जा सकेगा फिर हमारे जैसे क्षुद्र पुरुषोंकी तो कथा ही क्या है ? ॥ ५ ॥ तब विभीषणने कहा कि यदि निश्चित ही यह कार्य करना है तो शीघ्र ही प्रारम्भ किया जाय। आप लोग विलम्ब किसलिए कर रहे हैं || ६ || तदनन्तर इस प्रकार सलाह कर सब विद्याधरोंने श्रीरामसे कहा कि 'इस अवसर पर लङ्का ग्रहण की जाय' ॥७॥ रावणको मारा जाय और इच्छानुसार कार्य किया जाय। इस प्रकार कहे जाने पर महापुरुषोंकी चेष्टासे युक्त धीर वीर रामने कहा कि जो मनुष्य अत्यन्त भयभीत हैं उन आदिके ऊपर भी जब हिंसापूर्ण कार्य करना योग्य नहीं हैं तब जो नियम लेकर जिन-मन्दिर में बैठा है। उस पर यह कुकृत्य करना कैसे योग्य हो सकता है ? || - || जो उच्च कुल में उत्पन्न हैं, अहङ्कार से उन्नत हैं तथा शस्त्र चलानेके कार्य में जिन्होंने श्रम किया है ऐसे क्षत्रियोंकी यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय नहीं हैं ॥१०॥
तदनन्तर 'हमारे स्वामी राम महापुरुष हैं, ये अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करेंगे' ऐसा निश्चय कर उन्होंने एकान्तमें अपने-अपने कुमार लङ्काकी ओर रवाना किये || ११|| 'तत्पश्चात् कल चलेंगे' इस प्रकार निश्चय कर लेने पर भी विद्याधर आठ दिन तक सलाह ही करते रहे ||१२|| अथानन्तर पूर्णिमाका दिन आया तब पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखके धारक, कमलके समान दीर्घ नेत्रों से
१. सद्वृत्तान्तश्चरा-ज० । २. गृहम् । ३. गताः स्म म० ।
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