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एकोनसप्तषष्टितमं पर्व
निकारो यचदारोऽपि कुतश्चिनीचतो भवेत् । निश्चितं सोऽपि सोढव्यो महाबलयुतेरपि ॥१५|| क्रोधाद्विकुरुते किञ्चिदिवसेष्वेषु यो जनः । पिताऽपि किं पुनः शेषः स मे वध्यो भविष्यति ॥१६॥ युक्तो बोधिसमाधिभ्यां संसारं सोऽन्तवर्जितम् । प्रतिपद्यत यो न स्यात् समादिष्टस्य कारकः ॥१७॥
वंशस्थवृत्तम् ततो यथाऽऽज्ञापयसीति सम्भ्रमी मुदा तदाज्ञां शिरसा प्रतीक्ष्य सः । चकार सर्व गदितं जनैश्च तथा कृतं संशयसङ्गवर्जितैः ॥१८॥ जिनेन्द्रपूजाकरणप्रसका प्रजा बभूवापरकार्यमुक्ता ।
रविप्रभाणां परमालयानामन्तर्गता निर्मलतुङ्गभावा ॥१६॥ इत्यार्षे रविषेणाचार्य मोक्ते पद्मचरिते लोकनियमकरणाभिधानं नामैकोनसप्ततितमं पर्व ॥६॥
स्वामी-दशाननका यह योग समाप्त नहीं होता है तबतक सब लोग श्रद्धामें तत्पर एवं संयमी होकर रहें ॥१४॥ यदि किसी नीच मनुष्यकी ओरसे अत्यधिक तिरस्कार भी होवे तो भी महाबलवान् पुरुषोंको उसे निश्चित रूपसे सह लेना चाहिये ॥१५॥ इन दिनों में जो भी पुरुष क्रोधसे विकार दिखावेगा वह पिता भी हो, फिर शेषको तो बात ही क्या है ? मेरा वध्य होगा ॥१६॥ जो मनुष्य इस आदेशका पालन नहीं करेगा वह बोधि और समाधिसे युक्त होने पर भी अनन्त संसारको ही प्राप्त होगा-उससे छूटकर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा ॥१७॥
तदनन्तर 'जैसी आपकी आज्ञा हो' इस प्रकार शीघ्रतासे कहकर तथा हर्ष पूर्वक मन्दोदरीकी आज्ञा शिरोधार्यकर यमदण्ड मन्त्रीने घोषणा कराई और सब लोगोंने संशयसे रहित हो घोषणाके अनुसार ही सब कार्य किये ॥१८॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि सूर्यके समान कान्तिवाले उत्तमोत्तम महलोंके भीतर विद्यमान तथा निर्मल और उन्नत भावोंको धारण करने वाली लङ्काकी समस्त प्रजा, अन्य सब कार्य छोड़ जिनेन्द्र देवकी पूजा करनेमें ही लीन हो गई ॥१६॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराणमें लोगोंके नियम
करनेका वर्णन करने वाला उनहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥६६॥
१.रोधिसमाधिध्याम् म०।
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