________________
अष्टषष्टितम पर्व
जनबिम्बाभिषेकार्थमाहूता भक्तिभासुराः । दृश्यन्ते भोगिगेहेषु शतशोऽथ सहस्रशः ॥१५॥ नन्दनप्रभवः फुल्लैः कर्णिकारातिमुक्तकैः । कदम्बः सहकारैश्च चम्पकैः पारिजातकैः ॥१६॥ मन्दारैः सौरभाबद्धमधुव्रतकदम्बकैः । स्रजो विरचिता रेजुश्चैत्येषु परमोज्ज्वलाः ॥१७॥ २जातरूपमयैः पद्म रजतादिमयैस्तथा । मणिरत्नशरीरैश्च पूजा विरचिता परा ॥१८॥ पटुभिः पट हैस्तू मृदङ्गः काहलादिभिः । शङ्खश्चाशु महानादैश्चैत्येषु समजायत ॥१६॥ प्रशान्तवैरसम्बद्धमहानन्दसमागतैः । जिनानां महिमा चक्रे लङ्कातुरनिवासिभिः ॥२०॥ ते विभूति परां च कुर्विद्येशा भक्तितत्पराः । नन्दीश्वरे यथा देवा जिनबिम्बार्चनोद्यताः ॥२१॥
__ आर्याच्छन्दः अयमपि राक्षसवृषभः पृथुप्रतापः सुशान्तिगृहमभिगम्य । पूजां करोति भक्त्या बलिरिव पूर्व मनोहरां शुचिर्भूत्वा ।।२२।। समुचितविभवयुतानां जिनेन्द्रचन्द्रान् सुभक्तिभारधराणाम् । पूजयतां पुरुषाणां कः शक्तः पुण्यसञ्चयान् प्रचोदयितुम् ॥२३॥ भुक्त्वा देवविभूतिं लब्ध्वा चक्राङ्कभोगसंयोगम् ।
रवितोऽपि तपस्तीब कृत्वा जैनं व्रजन्ति मुक्तिं परमाम् ॥२४॥ इत्याचे रविषेणाचार्यप्रोक्ते पद्मपुराणे फाल्गुनाष्टाहिकामहिम विधानं नामाष्टषष्टि तमं पर्व ॥१८॥
Poranamannaana
जिनके कण्ठमें मोतियोंकी मालाएँ लटक रही थीं, जो रत्नोंकी किरणांसे सुशोभित थे, जो नाना प्रकारके बेलबूटोंसे देदीप्यमान थे तथा जो जिन-प्रतिमाओंके अभिषेकके लिए इकट्ठे किये गये थे ऐसे सैकड़ों हजारों कलश गृहस्थों के घरोंमें दिखायी देते थे ॥१४-१५॥ मन्दिरोंमें सुगन्धिके कारण जिन पर भ्रमरोंके समूह मँडरा रहे थे, ऐसे नन्दन-वनमें उत्पन्न हुए कर्णिकार, अतिमुक्तक, कदम्ब, सहकार, चम्पक, पारिजातक, तथा मन्दार आदिके फूलोंसे निर्मित अत्यन्त उज्ज्वल मालाएँ सुशोभित हो रही थीं ॥१६-१७|| स्वर्ण चाँदी तथा मणिरत्न आदिसे निर्मित कमलोंके द्वारा श्री जिनेन्द्र देवकी उत्कृष्ट पूजा की गई थी ॥१८।। उत्तमोत्तम नगाड़े, तुरही, मृदङ्ग, शङ्ख तथा काल आदि वादित्रोंसे मन्दिरों में शीघ्र ही विशाल शब्द होने लगा ॥१६॥ जिनका पारस्परिक वैरभाव शान्त हो गया था और जो महान आनन्दसे मिल रहे थे, ऐसे लङ्कानिवासियोंने जिनेन्द्र देवकी परम महिमा प्रकट को ॥२०॥ जिस प्रकार नन्दीश्वर द्वीपमें जिन-बिम्बकी अर्चा करने में उद्यत देव बड़ी विभूति प्रकट करते हैं उसी प्रकार भक्तिमें तत्पर विद्याधर
ओंने बडी विभति प्रकट की थीं ॥२॥ विशाल प्रतापके धारक रावणने भी श्री शान्तिजिनालयमें जाकर पवित्र हो पहले जिस प्रकार बलि राजाने की थी, उस प्रकार भक्तीसे श्री जिनेन्द्र देवकी मनोहर अर्चा की ॥२२॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जो योग्य वैभवसे युक्त हैं तथा उत्तम भक्तिके भारको धारण करने वाले हैं ऐसे श्री जिनेन्द्र देवकी पूजा करने वाले पुरुषोंके पुण्य-समूहका निरूपण करनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥२३॥ ऐसे जीव देवांकी सम्पदाका उपभोग कर तथा चक्रवर्तीके भोगोंका सुयोग पा कर और अन्तमें सूर्यसे भी अधिक जिनेन्द्र प्रणीत तपश्चरण कर श्रेष्ठ मुक्तिको प्राप्त होते हैं ॥२४॥ इस प्रकार आर्ष नामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य कथित पद्मपुराणमें फाल्गुनमासकी अष्टाह्निका
ओंकी महिमाका निरूपण करने वाला अड़सठवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥१८॥
१. चैत्यादि म० । २. स्वर्णमयैः । ३. महानादै-म० । Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org