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सप्तषष्टितमं पर्व
वन्द्यानां त्रिदशेन्द्रमौलिशिखर प्रत्युप्तरत्नस्फुरत्
स्फीतांशु प्रकरात्प्रसारिचरणप्रोत्सर्पिनख्यं विषाम् ज्ञात्वा सर्वमशाश्वतं परिदृढामाधाय धर्मे मतिं
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धन्याः सद्युति कारयन्ति परमं लोके जिनानां गृहम् ॥२७॥
उपजातिवृत्तम्
वित्तस्य जातस्य फलं विशालं वदन्ति सुज्ञाः सुकृतोपलम्भम् । धर्मश्च जैनः परमोsखिलेऽस्मिञ्जगत्यभीष्टस्य रविप्रकाशे ॥ २८ ॥
इत्यार्षे रविषेणाचार्य प्रोक्त पद्मचरिते शान्तिगृहकीर्तनं नाम सप्तषष्टितमं पर्व ॥ ६७॥
अतिशय ऊँचा वह शान्तिजिनालय था कि जिसमें शान्तिजिनेन्द्र विराजमान थे ||२३|| गौतम स्वामी कहते हैं कि उत्तम भाग्यशाली मनुष्य, धर्ममें दृढ़ बुद्धि लगाकर तथा संसारके सब पदार्थोंको अस्थिर जानकर जगत् में उन जिनेन्द्र भगवान के कान्तिसम्पन्न, उत्तम मन्दिर बनवाते हैं जो सबके द्वारा वन्दनीय हैं तथा इन्द्रके मुकुटोंके शिखर में लगे रत्नोंकी देदीप्यमान किरणोंके समूहसे जिनके चरणनखोंकी कान्ति अत्यधिक वृद्धिगत होती रहती है ॥२७॥ बुद्धिमान् मनुष्य कहते हैं कि प्राप्त हुए विशाल धनका फल पुण्यकी प्राप्ति करना है और इस समस्त संसार में एक जैनधर्म ही उत्कृष्ट पदार्थ है, यही इष्ट पदार्थको सूर्यके समान प्रकाशित करनेवाला है | २८ ॥
इस प्रकार श्रार्षनामसे प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में शान्ति जिनालयका वर्णन करने वाला सड़सठवाँ पर्व समाप्त हुआ || ६७॥
१. नक्षत्विषाम् म० ।
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