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सप्तषष्टितमं पर्व स्वदूतवचनं श्रुत्वा राक्षसानामधीश्वरः । क्षणं सन्मन्त्रणं कृत्वा मन्त्रज्ञैः सह मन्त्रिभिः ॥१॥ कृत्वा पाणितले गण्डं कुण्डलालोकभासुरम् । अधोमुखः स्थितः किञ्चिदिति चिन्तामुपागतः ॥२॥ नागेन्द्रवन्दसट्टे युद्धे शत्रु जयामि चेत् । तथा सति कुमाराणां प्रमादः परिदृश्यते ॥३॥ सुप्ते शत्रुबले दत्त्वा समास्कन्दमवेदितः । आनयामि कुमारान् किं किं करोमि कथं शिवम् ॥४॥ इति चिन्तयतस्तस्य मागधेश्वरशेमुषी । इयं समुद्गता जातो यया सुखितमानसः ॥५॥ साधयामि महाविद्यां बहुरूपामिति श्रुताम् । प्रतिब्यूहितुमुधुक्तैर शक्यां निदशैरपि ॥६॥ इति ध्यात्वा समाहूय किङ्करानशिषद् द्रुतम् । कुरुध्वं शान्तिगेहस्य शोभा सत्तोरणादिभिः ॥७॥ पूजां च सर्वचैत्येषु सर्वसंस्कारयोगिषु । सर्वश्वायं भरो न्यस्तो मन्दोदर्या सुचेतसि ॥८॥ विंशस्य देवदेवस्य वन्दितस्य सुरासुरैः । मुनिसुव्रतनाथस्य तस्मिन् काले महोदये ॥६॥ सर्वत्र भरतक्षेत्रे सुविस्तीर्णे महायते । अर्हचैत्यैरियं पुण्यवसुधाऽऽसीदलङ्कृता ॥१०॥ राष्ट्राधिपतिभिर्भूपैः श्रेष्ठिभिमभोगिभिः । उत्थापितास्तदा जैनाः प्रासादाः पृथुतेजसः ॥११॥ अधिष्ठिता भृशं भक्तियुक्तैः शासनदैवतैः । सद्धर्मपक्षसंरक्षाप्रवणः शुभकारिभिः ॥१२॥ सदा जनपदैः स्फीतैः कृताभिषवपूजनाः । रेजुः स्वर्गविमानाभा भव्यलोकनिषेविताः ॥१३॥ पर्वते पर्वते चारौ ग्रामे ग्रामे वने वने । पत्तने पत्तने राजन् हम्य हर्ये पुरे पुरे ॥१४॥
अथानन्तर राक्षसोंका अधीश्वर रावण अपने दूतके वचन सुनकर क्षणभर मन्त्रके जानकार मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा करता रहा। तदनन्तर कुण्डलोंके आलोकसे देदीप्यमान गण्डस्थलको हथेली पर रख अधोमुख बैठ इस प्रकार चिन्ता करने लगा कि ॥१-२॥ यदि हस्तिसमूहके संघट्टसे युक्त युद्ध में शत्रुओंको जीतता हूँ तो ऐसा करनेसे कुमारोंकी हानि दिखाई देती है ।।३।। इसलिए जब शत्रुसमूह सो जावे तब अज्ञात रूपसे धावा देकर कुमारोंको वापिस ले आऊँ ? अथवा क्या करूँ ? क्या करनेसे कल्याण होगा ? ॥४॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे मगधेश्वर ! इस प्रकार विचार करते हुए उसे यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि उसका हृदय प्रसन्न हो गया ॥५॥ उसने विचार किया कि मैं बहुरूपिणी नामसे प्रसिद्ध वह विद्या सिद्ध करता हूँ कि जिसमें सदा तत्पर रहनेवाले देव भी विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ॥६॥ ऐसा विचार कर उसने तीघ्र ही किंकरोंको बला आदेश दिया कि शान्तिजिनालयकी उत्तम तोरण आदिसे सजावट करो ॥७॥ तथा सब प्रकारके उपकरणोंसे युक्त सर्वमन्दिरोंमें जिनभगवान्की पूजा करो। किङ्करोंको ऐसा आदेश दे उसने पूजाकी व्यवस्थाका सब भार उत्तमचित्तकी धारक मन्दोदरीके ऊपर रक्खा ।।८।। गौतम स्वामी कहते हैं कि वह सुर और असुरों द्वारा वन्दित बोसवें मुनिसुव्रत भगवान्का महाभ्युदयकारी समय था। उस समय लम्बे-चौड़े समस्त भरत क्षेत्रमें यह पृथ्वी अर्हन्तभगवान्की पवित्र प्रतिमाओंसे अलंकृत थी ।।६-१०॥ देशके अधिपति राजाओं तथा गाँवोंका उपभोग करनेवाले सेठोंके द्वारा जगह-जगह देदीप्यमान जिन-मन्दिर खड़े किये गये ।।११।। वे मन्दिर, समीचीन धर्मके पक्षकी रक्षा करने में निपुण, कल्याणकारी, भक्तियुक्त शासनदेवोंसे अधिष्ठित थे ॥१२॥ देशवासी लोग सदा वैभवके साथ जिनमें अभिषेक तथा पूजन करते थे और भव्य जीव सदा जिनकी आराधना करते थे, ऐसे वे जिनालय स्वर्गके विमानोंके समान सुशोभित होते थे ।।१३।। हे राजन् ! उस समय पर्वत पर्वतपर, अतिशय सुन्दर गाँव
१. वृद्ध म० । २. स्वचेतसि म । २-३
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