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षट्षष्टितमं पर्व
. सुग्रीव ! पद्मगर्षेण नूनं त्वं मर्तुमिच्छसि । अधिक्षिपसि यत् क्रुद्ध े विद्याधरमहेश्वरम् ॥८०॥ ऊचे विराधितश्च त्वां यथा ते शक्तिरस्ति चेत् । आगच्छतु ममैकस्य युद्धं यच्छ किमास्यते ॥८१॥ उक्त दाशरथिर्भूयो मया राम ! रणाजिरे । रावणस्य न किं दृष्टस्त्वया परमविक्रमः ॥८२॥ यतः चमान्वितं वीरं राजखद्योतभास्करम् । सामप्रयोगमिच्छन्तं भवत्पुण्यानुभावतः ॥८३॥ वदान्यं त्रिजगत्ख्यातप्रतापं प्रणतप्रियम् । नेतुमिच्छसि संक्षोभं कैलासक्षोभकारिणम् ॥८४॥ चण्डसैन्योर्मिमालायं शस्त्रयादोगणाकुलम् । तर्तुमिच्छसि किं दोर्भ्यां दशग्रीवमहार्णवम् ॥८५॥ यद्विपमहान्यालां पदातिद्रुमसङ्कटाम् । विवचसि कथं दुर्गा दशग्रीवमहावीम् ॥८६॥ वंशस्थवृत्तम्
न पद्मवातेन सुमेरुरुह्यते न सागरः शुष्यति सूर्यरश्मिभिः । गवेन्द्रवर्धरणी न कम्पते न साध्यते त्वत्सदृशैर्दशाननः ॥ ८७ ॥ उपजातिः
इति प्रचण्डं मयि भाषमाणे भामण्डलः क्रोधकषायनेत्रः । यावत् समाकर्षदसिं प्रदीप्तं तावत् सुमित्रातनयेन रुद्धः ॥८८॥ प्रसीद वैदेह ! विमुञ्च कोषं न जम्बुके कोपमुपैति सिंहः । गजेन्द्रकुम्भस्थलदारणेन क्रीडां स मुक्तोनिकरैः करोति ॥ ८६ ॥ नरेश्वर। ऊर्जितशौर्यचेष्टा न भीतिभाजां प्रहरन्ति जातु । न ब्राह्मणं न श्रमणं न शून्यं स्त्रियं न बालं न पशुं न दूतम् ॥ ६०॥
था, ऐसे मैंने उस सुप्रोको इस प्रकार धौंसा जिस प्रकार कि श्वान हाथीको धौंसता है ॥७६॥ मैंने कहा कि अरे सुग्रीव ! जान पड़ता है कि तू रामके गर्वसे मरना चाहता है, जो कुपित हुए विद्याधरोंके अधिपतिकी निन्दा कर रहा है ||८०|| हे नाथ ! विराधितने भी आपसे कहा है कि यदि तेरी शक्ति है तो आ, मुझ एकके लिए ही युद्ध प्रदान कर । बैठा क्यों है ? ॥ ८१ ॥ मैंने रामसे पुन: कहा कि हे राम ! क्या तुमने रणाङ्गण में रावणका परम पराक्रम नहीं देखा है ? ॥८२॥ जिससे कि तुम उसे क्षोभको प्राप्त कराना चाहते हो । जो राजा रूपी जुगनुओं को दानेके लिए सूर्य के समान है, वीर है और तीनों जगत् में जिसका प्रताप प्रख्यात है, ऐसा रावण, इस समय आपके पुण्य प्रभावसे क्षमा युक्त है । साम - शान्तिका प्रयोग करनेका इच्छुक है, उदार त्यागी है, एवं नम्र मनुष्योंसे प्रेम करनेवाला है || ८३-८४ ॥ जो बलवान् सेना रूपी तरङ्गों की मालासे युक्त है तथा शस्त्र रूपी जल-जन्तुओंके समूह से सहित है ऐसे रावण रूपी समुद्रको तुम क्या दो भुजाओंसे तैरना चाहते हो ? ॥८५|| घोड़े और हाथी ही जिसमें हिंसक जानवर हैं तथा जो पैदल सैनिक रूपी वृक्षोंसे संकीर्ण हैं ऐसी दुर्गम रावण रूपी अटवीमें तुम क्यों घुसना चाहते हो ? ||८६|| मैंने कहा कि हे पद्म ! वायु के द्वारा सुमेरु नहीं उठाया जाता, सूर्यको किरणोंसे समुद्र नहीं सूखता, बैलकी सींगोंसे पृथिवी नहीं काँपती और और तुम्हारे जैसे लोगां से दशानन नहीं जीता जाता ॥ ८७ ॥ इस प्रकार क्रोधपूर्वक मेरे कहने पर क्रोध से लाल-लाल नेत्र दिखाता हुआ भामण्डल जबतक चमकती तलवार खींचता है तबतक लक्ष्मणने उसे मना कर दिया ||८|| लक्ष्मणने भामण्डल से कहा कि हे विदेहासुत ! क्रोध छोड़ो, सिंह सियार पर कोध नहीं करता, वह तो हाथीका गण्डस्थल चीरकर मोतियों के समूहसे क्रीड़ा करता है || || जो राजा अतिशय बलिष्ठ शूरवीरोंकी चेष्टाको धारण करनेवाले हैं वे कभी न भयभीत पर, न ब्राह्मण पर, न मुनि पर, न निहत्थे पर न स्त्रीपर, न बालकपर, न पशुपर
१. क्षुद्र म० । २. मुक्त्वा निकरैः म० ।
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