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पपुराणे
सहस्रत्रितयं चारुकन्यानां परिवर्गवत् । सिंहासनं रविच्छायं छत्रं च शशिसनिभम् ॥६५॥ भज निष्कण्टकं राज्यं सीता यदि तवाऽऽज्ञया। मां वृणोति किमन्येन भाषितेनेह भूरिणा ॥६६॥ वयं वेत्रासनेनैव सन्तुष्टाः स्वल्पवृत्तयः । भविष्यामो मदुक्तं चेत् करोषि सुविचक्षण ॥६॥ एवमादीनि वाक्यानि प्रोक्तोऽपि स मया मुहुः । सीताग्राहं न तनिष्ठो मुञ्चते रघुनन्दनः ॥६॥ साधोरिवातिशान्तस्य चर्या सा तस्य भाषिता । अशक्यमोचना दानात् त्रैलोक्यस्यापि सुन्दरी ॥६६॥ ब्रवीत्येवं च रामस्वां यथा तव दशानन । न युक्तमीदृशं वक्त सर्वलोकविगर्हितम् ॥७॥ तवैवं भाषमाणस्य नृणामधमजन्मनः । रसनं न कथं यातं शतधा पापचेतसः ॥७॥ अपि देवेन्द्रभोगैमें न कृत्यं सीतया विना । मुंश्व त्वं पृथिवीं सर्वामाश्रयिष्याम्यहं वनम् ॥७२॥ पराङ्गनां समुद्दिश्य यदि त्वं मर्तुमुद्यतः । अहं पुनः कथं स्वस्याः प्रियाया न कृते तथा ॥७३॥ सर्वलोकगताः कन्यास्त्वमेव भज सुन्दर । फलपर्णादिभोजी तु सीतयाऽमा भ्रमाम्यहम् ॥७४॥ शाखामृगध्वजाधीशस्त्वां प्रहस्याभणीदिदम् । यथा किल ग्रहेणाऽसौ भवत्स्वामी वशीकृतः ॥७५॥ वायुना वाऽतिचण्डेन विप्रलापादिहेतुना । येनेदं विपरीतत्वं वराकः समुपागतः ।।७६। नूनं न सन्ति लङ्कायां कुशला मन्त्रवादिनः । पक्वतैलादिवायेन क्रियते तञ्चिकित्सितम् ॥७७॥ आवेशं सायकैः कृत्वा क्षिप्रं सङ्ग्राममण्डले । लक्ष्मीधरनरेन्द्रोऽस्य रुजः सर्वा हरिष्यति ॥७८।। ततो मया तदाक्रोशवहिज्वलितचेतसा । शुना द्विप इवाष्टो वानरध्वजचन्द्रमाः ॥७६।।
अपने परिकरोंसे सहित तीन हजार सुन्दर कन्याएँ, सूर्यके समान कान्तिवाला सिंहासन और चन्द्रतुल्य छत्र देता हूँ । अथवा इस विषयमें अन्य अधिक कहनेसे क्या ? यदि तुम्हारी आज्ञासे मुझे सीता स्वीकृत कर लेती है तो इस समस्त निष्कण्टक राज्यका सेवन करो ॥६२-६६|| हे विद्वान् ! यदि हमारा कहा करते हो तो हम थोड़ी-सी आजीविका लेकर एक बेतके आसनसे ही संतुष्ट हो जावेंगे ।।६७।। इत्यादि वचन मैंने यद्यपि उससे बार-बार कहे तथापि वह सीताकी हठ नहीं छोड़ता है उसी एकमें उसकी निष्ठा लग रही है ॥६८। जिस प्रकार अत्यन्त शान्त साधुकी अपनी चर्या प्रिय होती है उसी प्रकार वह सीता भी रामको अत्यन्त प्रिय है । हे स्वामिन् ! आपका राज्य तो दूर रहा, तीन लोक भी देकर उस सुन्दरीको उससे कोई नहीं छुड़ा सकता ॥६|| और रामने आपसे इस प्रकार कहा है कि हे दशानन ! तुम्हें ऐसा सर्वजन निन्दित कार्य करना योग्य नहीं है ।।७०।। इस प्रकार कहते हुए तुझ पापी नीच मनुष्यकी जिह्वाके सौ टुकड़े क्यों नहीं हो गये ॥७१॥ मुझे सीताके बिना इन्द्रके भोगोंकी भी आवश्यकता नहीं है। तू समस्त पृथिवीका उपभोग कर और मैं उनमें निवास करूँगा ॥७२॥ यदि तू पर-स्त्रीके उद्देश्यसे मरनेके लिए उद्यत हुआ है तो मैं अपनी निजकी स्त्रीके लिए क्यों नहीं प्रयत्न करूँ ? ॥७३॥ हे सुन्दर ! समस्त लोकमें जितनी कन्याएँ हैं उन सबका उपभोग तुम्ही करो, मैं तो फल तथा पत्तों आदिका खानेवाला हूँ , केवल सीताके साथ ही घूमता रहता हूँ ॥७४॥ दूत रावणसे कहता जाता है कि
नाथ ! वानरोंके अधिपति सुग्रीवने तुम्हारी हँसी उड़ा कर यह कहा था कि जान पड़ता है तुम्हारा वह स्वामी किसी पिशाचके वशीभूत हो गया है ॥७५।। अथवा बकवादका कारण जो अत्यन्त तीव्र वायु है उससे तुम्हारा स्वामी ग्रस्त है । यही कारण है कि वह बेचारा इस प्रकार विपरीतताको प्राप्त हो रहा है ।।७६॥ जान पड़ता है कि लंकामें कुशल वैद्य अथवा मन्त्रवादी नहीं हैं अन्यथा पक्व तैलादि वायुहर पदार्थों के द्वारा उसकी चिकित्सा अवश्य की जाती ॥७७॥ अथवा लक्ष्मणरूपी विषवैद्य संग्रामरूपी मण्डलमें शीघ्र ही वाणों द्वारा आवेश कर इसके सब रोगोंको हरेगा |८|तदनन्तर उसके कुवचन रूपी अग्निसे जिसका चित्त प्रज्वलित हो रहा
१. मन्त्रिवादिनः म० । २. पकतैलादिना येन म०।
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