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पद्मपुराणे
न शोभना नितान्तं ते प्रत्याशा जानकीं प्रति । 'लङ्केन्द्रे सङ्गते कोपं व्यजाऽऽशामपि जीविते ||३६|| नरेण सर्वथा स्वस्य कर्त्तव्यं बुद्धिशालिना । रक्षणं सततं यत्नाद्दारैरपि धनैरपि ||४०|| प्रेषितं तार्क्ष्यनाथेन यदि वाहनयुग्मकम् । यदि वा छिदतो बद्धा मम पुत्रसहोदराः || ४१|| तथापि नाम कोमिन् गर्वस्तव समुद्यतः । नैतावता कृतित्वं ते मयि जीवति जायते ||४२|| विग्रहे कुर्वतो यत्नं न ते सीता न जीवितम् । मा भूरुभयतो भ्रष्टस्यज सीतानुबन्धिताम् ॥४३॥ २ लब्धवर्णाः समस्तेषु शास्त्रेषु परमेश्वराः । सुरेन्द्रप्रतिमा नीताः खेचरा निधनं मया ॥ ४४ ॥ पश्याष्टापदकूटाभानिमान् कैकससञ्चयान् । उपेयुषां क्षयं राज्ञां मदीयभुजवीर्यतः ॥ ४५ ॥ इति प्रभाषिते दूते क्रोधतो जनकात्मजः । जगाद विस्फुरद्वक्त्रज्योतिज्र्ज्वलित पुष्करः ॥ ४६ ॥ आः पाप दूत गोमायो ! वाक्य संस्कारकूटक । दुर्बुद्धे भाषसे व्यर्थं किमित्येवमशङ्कितः ॥ ४७ ॥ सीतां प्रति कथा केयं पद्माधिक्षेपमेव वा । को नाम रात्रगो रक्षः पशुः कुत्सितचेष्टितः ॥४८॥ इत्युक्त्वा सायकं यावज्जग्राह जनकात्मजः । केकयीसूनुना तावन्निरुद्धो नयचक्षुषा ॥ ४६ ॥ रक्तोत्पलदलच्छाये नेत्रे जनकजन्मनः । कोपेन दूषिते जाते सन्ध्याकारानुहारिणी ॥५०॥ स्वैरं स मन्त्रिभिर्नीतः शमं साधूपदेशतः । मन्त्रेणेव महासर्पः स्फुरद्विषकणद्युतिः ॥ ५१ ॥ नरेन्द्र ! त्यज संरम्भं समुद्रतमगोचरे । अनेन "मारितेनापि कोऽर्थः प्रेषणकारिणा ॥ ५२ ॥
आये हो इससे जान पड़ता है कि तुम कहुकल्याणकारी कार्यको नहीं जानते हो ॥ ३= ॥ सीता के प्रति तुम्हारी आशा बिलकल ही अच्छी नहीं है । अथवा सीताकी बात दूर रही, रावणके कुपित होनेपर अपने जीवनकी भी आशा छोड़ो || ३६ || बुद्धिमान् मनुष्यको अपने आपकी रक्षा सदा स्त्रियों और धनके द्वारा भी सब प्रकार से करना चाहिए ||४०|| यदि गरुडेन्द्रने तुम्हें दो वाहन भेज दिये हैं अथवा छल पूर्वक तुमने मेरे पुत्रों और भाईको बाँध लिया है तो इतनेसे तुम्हारा यह कौन-सा बढ़ा-चढ़ा अहंकार है ? क्योंकि मेरे जीवित रहते हुए इतने मात्र से तुम्हारी कृतकृत्यतां नहीं हो जाती ||४१-४२॥ युद्ध में यत्न करने पर न सीता तुम्हारे हाथ लगेगी और न तुम्हारा जीवन ही शेष रह जायगा । इसलिए दोनों ओरसे भ्रष्ट न होओ सीता सम्बन्धी हठ छोड़ो ॥४३॥ समस्त शास्त्रों में निपुण इन्द्र जैसे बड़े-बड़े विद्याधर राजाओंको मैंने मृत्यु प्राप्त करा दी है || ४४ || मेरी भुजाओंके बलसे क्षयको प्राप्त हुए राजाओंके जो ये कैलासके शिखर के समान हड्डियोंके ढेर लगे हुए हैं इन्हें देखो || ४५॥
इस प्रकार दूतके कहने पर, मुखकी देदीप्यमान ज्योतिसे आकाशको प्रज्वलित करता हुआ भामण्डल क्रोधसे बोला कि अरे पापी ! दूत ! शृगाल ! बातें बनाने में निपुण ! दुर्बुद्ध ! इस तरह व्यर्थ हो निःशंक हो, क्यों बके जा रहा है ॥ ४६-४७॥ सीताकी तो चर्चा ही क्या है ? रामकी निन्दा करनेके विषय में नीच चेष्टाका धारी पशुके समान नीच राक्षस रावण है ही कौन ? ॥ ४८ ॥ इतना कहकर ज्योंही भामण्डलने तलवार उठाई त्योंही नीति रूपी नेत्रके धारक लक्ष्मणने उसे रोक लिया ||४६॥ भामण्डलके जो नेत्र लाल कमलदलके समान थे वे क्रोध से दूषित हो सन्ध्याका आकार धारण करते हुए दूषित हो गये – सन्ध्या के समान लाल-लाल दिखने लगे ॥५०॥ तदनन्तर जिस प्रकार विषकणोंकी कान्तिको प्रकट करनेवाला महासर्प मन्त्र के द्वारा शान्त किया जाता है उसी प्रकार वह भामण्डल मन्त्रियोंके द्वारा उत्तम उपदेश से धीरे-धीरे शान्तिको प्राप्त कराया गया ॥ ५१ ॥ मन्त्रियोंने कहा कि हे राजन! अयोग्य विषय में प्रकट हुए क्रोधको छोड़ो। इस दूतको यदि मार भी डाला तो इससे कौनसा प्रयोजन
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१. लङ्केन्द्र संगते म० । २. लब्धवर्णः म० । ३. वक्र म० । ४. समं म० । ५. महितेनापि म० ।
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