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षट्षष्टितमं पर्व
प्रावृषेण्यघनाकारगजमर्दनपण्डितः । 'नाखौ संक्षोभमायाति सिंहः प्रचलकेसरः ॥५३॥ प्रतिशब्देषु कः कोपः छायापुरुषकेऽपि वा । तिर्यक्षु वा शुकाद्येषु यन्त्र बिम्बेषु वा सताम् ॥५४॥ लक्ष्मणेनैवमुक्तोऽसौ शान्तोऽभूजनकात्मजः । अभ्यधाश्च पुनर्दूतः पद्मं साध्वसवर्जितः ॥५५॥ सचिवापस दैर्भूयः सम्प्रमूढैस्वमीदृशैः । संयोज्य से दुरुयोगैः संशये दुर्विदग्धकैः ॥५६॥ प्रतार्यमाणमात्मानं प्रबुद्ध्यस्व त्वमेतकैः । निरूपय हितं स्वस्य स्वयं बुद्ध्या प्रवीणया ||५७ ॥ त्यज सीतासमासङ्गं भवेन्द्रः सर्वविष्टपे । भ्रम पुष्पकमारूढो यथेष्टं विभवान्वितः ॥ ५८ ॥ मिथ्याग्रहं विमुञ्चस्व मा श्रौषीः क्षुद्रभाषितम् । करणीये मनो दत्स्व भृशमेधि महासुखम् ॥५६॥ क्षुद्रस्योत्तरमेतस्य को ददातीति जानके । तूष्णीं स्थितेऽथ दूतोऽसावन्यैर्निर्भत्सितः परम् ॥६०॥ स विद्धो वाक्शरैस्तीच्णैरसत्कारमलं श्रितः । जगाम स्वामिनः पार्श्वे मनस्यत्यन्तपीडितः ||६१॥ स उवाच तत्राऽऽदेशान्नाथ रामो मयोदितः । क्रमेण नयविन्यासकारिणा स्वत्प्रभावतः ॥६२॥ नानाजनपदाकीर्णामाकूपारनिवारिताम् । बहुरत्नाकरां क्षोणीं विद्यानृत्यसमन्विताम् ॥६३॥ ददामि ते महानागांस्तुरगांश्च रथांस्तथा । कामगं पुष्पकं यानमप्रधृष्यं सुरैरपि ॥ ६४ ॥
सिद्ध होनेवाला है ? ||५२|| वर्षाऋतुके मेघके समान विशाल हाथियोंके नष्ट करनेमें निपुण चल केसरोंवाला सिंह चूहे पर क्षोभको प्राप्त नहीं होता ||५३|| प्रतिध्वनियों पर, लकड़ी आदिके बने पुरुषाकार पुतलों पर, सुआ आदि तियंवों पर और यन्त्रसे चलनेवाली मनुष्याकार पुतलियों पर सत्पुरुषों का क्या क्रोध करना है ? अर्थात् इस दूतके शब्द निजके शब्द नहीं हैं। ये तो रावण के शब्दों की मानो प्रतिध्वनि ही हैं। यह दीन पुरुष नहीं है, पुरुष तो रावण है और यह उसका आकार मात्र पुतला है, जिस प्रकार सुआ आदि पक्षियोंको जैसा पढ़ा दो वैसा पढ़ने लगता है । इसी प्रकार इस दूतको रावणने जैसा पढ़ा दिया वैसा पढ़ रहा है और कठपुतली जिस प्रकार स्वयं चेष्टा नहीं करती उसी प्रकार यह भी स्वयं चेष्टा नहीं करता - मालिककी इच्छानुसार चेष्टा कर रहा है अतः इसके ऊपर क्या क्रोध करना है ? ॥ ५४ ॥ इस प्रकार लक्ष्मणके कहने पर भामण्डल शान्त हो गया । तदनन्तर निर्भय हो उस दूतने रामसे पुनः कहा कि ॥५५ ॥ तुम इस प्रकार मूर्ख नीच मन्त्रियोंके द्वारा अविवेकपूर्ण दुष्प्रवृत्तियों से संशय में डाले जा रहे हो अर्थात् खेद है कि तुम इन मन्त्रियों की प्रेरणासे व्यर्थ ही अविचारित रम्य प्रवृत्ति कर अपने आपको संशय में डाल रहे हो || ५६ || तुम इनके द्वारा छले जानेवाले अपने आपको समझो और स्वयं अपनी निपुण बुद्धिसे अपने हितका विचार करो || ५७|| सीताका समागम छोड़ो, समस्त लोक स्वामी होओ, और वैभव के साथ पुष्पक विमानमें आरूढ़ हो इच्छानुसार भ्रमण करो ||५८ || मिथ्या हठको छोड़ो, क्षुद्र मनुष्योंका कथन मत सुनो, करने योग्य कार्य में मन लगाओ और इस तरह महा सुखी होओ ||५६|| तदनन्तर इस क्षुद्रका उत्तर कौन देता है ? यह सोचकर भामण्डल तो चुप बैठा रहा परन्तु अन्य लोगोंने उस दूतका अत्यधिक तिरस्कार किया
खूब धौंस दिखायी ॥ ६० ॥
अथानन्तर वचन रूपी तीक्ष्ण वाणों से बिंधा और परम असत्कारको प्राप्त हुआ वह दूत मनमें अत्यन्त पीड़ित होता हुआ स्वामीके समीप गया ॥ ६१ ॥ वहाँ जाकर उसने कहा कि हे नाथ ! आपका आदेश पा आपके प्रभाव से नय- विन्याससे युक्त पद्धतिसे मैंने रामसे कहा कि मैं नाना देशोंसे युक्त, अनेक रत्नोंकी खानोंसे सहित तथा विद्याधरोंसे समन्वित समुद्रान्त पृथिवी, बड़े-बड़े हाथी, घोड़े, रथ, देव भी जिसका तिरस्कार नहीं कर सकते ऐसा पुष्पक विमान, अपने
१. नासौ म०, नखौ ज० । २. प्रतीर्यमाणम० । ३. जनकस्यापत्यं पुमान् जानकः तस्मिन् भामण्डले इत्यर्थः । ४. क्षीणां म० । ५. विद्याभृत्पृतनान्विताम् म० ।
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