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षट्षष्टितमं पर्व
प्रोत्यैव शोभना सिद्धियुद्धतस्तु जनक्षयः । असिद्विश्व महान् दोषः सापवादाश्च सिद्धयः ॥२४॥ दुवृत्तो नरकः शङ्खो धवलाङ्गोऽसुरस्तथा । निधनं शम्बराद्याश्च सङ्ग्रामश्रद्धया गताः ॥२५।। प्रीतिरेव मया साद्धं भवते नितरां हिता । ननु सिंहो गुहां प्राप्य महागुर्जायते सुखी ॥२६॥ महेन्द्रदमनो येन समरेऽमरभीषणः । सुन्दरीजनसामान्यं बन्दीगृहमुपाहृतः ॥२७॥ पाताले भूतले व्योम्नि गतिर्यस्येच्छया कृता । सुरासुरैरपि क्रुद्धः प्रतिहन्तुं न शक्यते ॥२८॥ नानानेकमहायुद्धवीरलचमीस्वयंग्रही। सोऽहं दशाननो जातु भवता किं तु न श्रुतः ॥२६॥ सागरान्तां महीमेतां विद्याधरसमन्विताम् । लङ्कां भागद्वयोपेतां राजन्नेव ददामि ते ॥३०॥ अद्य मे सोदरं प्रेष्य तनयौ च सुमानसः । अनुमन्यस्व सीतां च ततः क्षेमं भविष्यति ॥३१॥ न चेदेवं करोपि त्वं ततस्ते कुशलं कुतः । एताँश्च समरे बद्धानानेष्यामि बलादहम् ॥३२॥ पद्मनाभस्ततोऽवोचन्न मे राज्येन कारणम् । न चान्यप्रमदाजेन भोगेन महताऽपि हि ॥३३॥ एष प्रेष्यामि ते पुत्रौ भ्रातरं च दशानन । सम्प्राप्य परमां पूजां सीतां प्रेष्यसि मे यदि ॥३॥ एतया सहितोऽरण्ये मृगसामान्यगोचरे । यथासुखं भ्रमिष्यामि महों त्वं भुचव पुष्कलाम् ॥३५॥ गस्लेव ब्रूहि दूत त्वं तं लङ्कापरमेश्वरम् । एतदेव हि पथ्यं ते कर्तव्यं नान्यथाविधम् ॥३६॥ सर्वैः प्रपूजितं श्रुत्वा पद्मनाभस्य तद्वचः । सौष्ठवेन समायुक्तं सामन्तो वचनं जगौ ॥३७॥ न वेस्सि नृपते कार्य बहुकल्याणकारणम् । तदुल्लयाम्बुधिं भीममागतोऽसि भयोजितः ॥३८॥
wwwwww नहीं है क्योंकि युद्धका अभिमान करनेवाले बहुतसे मनुष्य क्षयको प्राप्त हो चुके हैं ॥२३॥ कार्यकी उत्तम सिद्धि प्रीतिसे ही होती है, युद्धसे तो केवल नरसंहार ही होता है, युद्धमें यदि सफलता नहीं मिली तो यह सबसे बड़ा दोष है और यदि सफलता मिलती भी है तो अनेक अपवादोंसे सहित मिलती है ॥२४॥ पहले युद्धकी श्रद्धासे दुवृत्त, नरक, शङ्ख, धवलाङ्ग तथा शम्बर आदि राजा विनाशको प्राप्त हो चुके हैं ॥२५॥ हमारे साथ प्रीति करना हो आपके लिए अत्यन्त हितकारी है, यथार्थमें सिंह महापर्वतकी गुफा पाकर ही सुखी होता है ॥२६॥ युद्ध में देवोंको भय उत्पन्न करने वाले राजा इन्द्रको जिसने सामान्य खियोंके योग्य बन्दीगृहमें भेजा था ॥२७॥ पाताल, पृथिवीतल तथा आकाशमें स्वेच्छासे की हुई जिसकी गतिको, कुपित हुए सुर और असुर भी खण्डित करनेके लिए समर्थ नहीं हैं ॥२८।। नाना प्रकारके अनेक महायुद्धोंमें वीर लक्ष्मीको स्वयं ग्रहण करने वाला मैं रावण क्या कभी आपके सुननेमें नहीं आया ॥२६।। हे राजन् ! में विद्याधरोंसे सहित यह समुद्र पयन्तकी समस्त पृथिवी और लङ्काके दो भाग कर एक भाग तुम्हारे लिए देता हूँ॥३०॥ तुम आज अच्छे हृदयसे मेरे भाई तथा पुत्रों को भेजकर सीता देना स्वीकृत करो, उसीसे तुम्हारा कल्याण होगा ॥३१।। यदि तुम ऐसा नहीं करते हो तो तुम्हारी कुशलता कैसे हो सकती है ? क्योंकि सीता तो हमारे पास है ही और युद्धमें बाँधे हुए भाई तथा पुत्रोंको हम बलपूर्वक छीन लावेंगे ॥३२॥
तदनन्तर श्रीरामने कहा कि मुझे राज्यसे प्रयोजन नहीं है और न अन्य स्त्रियों तथा बड़ेबड़े भोगों से मतलब है ॥३३।। यदि तुम परम सत्कारके साथ सीताको भेजते हो तो हे दशानन ! मैं तुम्हारे भाई और दोनों पुत्रोंको अभी भेज देता हूँ ॥३४॥ मैं इस सीताके साथ मृगादि जन्तुओंके स्थानभूत वनमें सुखपूर्वक भ्रमण करूँगा और तुम समग्र पृथिवीका उपभोग करो ॥३५॥ हे दूत ! तू जाकर लङ्काके धनीसे इस प्रकार कह दे कि यही कार्य तेरे लिए हितकारी है, अन्य कार्य नहीं । ३६।। सबके द्वारा पूजित तथा सुन्दरतासे युक्त रामके वे वचन सुन सामन्त दूत इस प्रकार बोला कि ॥३७॥ हे राजन् ! यतश्च तुम भयङ्कर समुद्रको लाँघ कर निर्भय हो यहाँ
१. निधानं म० । २. प्रेक्ष्य म० । ३. अनुमन्यस्य म० । ४. न चेदं म० { ५. नृपतेः म० ।
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