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श्रीमद्रविषेणाचार्यप्रणीतं पअचरितापरनामधेयं पद्मपुराणम् षट्षष्टितमं पर्व
अथ लचमीधरं स्वन्तं विशल्याचरितोचितम् । चारेभ्यो रावणः श्रत्वा जज्ञे विस्मयमत्सरी ॥१॥ जगाद च स्मितं कृत्वा को दोष इति मन्दगीः । ततोऽगादि मृगाङ्काद्यैर्मन्त्रिभिर्मन्त्रकोविदैः ॥२॥ यथार्थ भाष्यसे देव ! सुपथ्यं कुप्य तुष्य वा । परमार्थो हि निर्भीकैरुपदेशोऽनुजीविभिः ॥३॥ सैंहगारुडविद्ये तु रामलचमणयोस्त्वया । दृष्टे यत्नाद्विना लब्धे पुण्यकर्मानुभावतः ॥१॥ बन्धनं कुम्भकर्णस्य दृष्टमात्मजयोस्तथा। शक्तरनर्थकत्वं च दिव्यायाः परमौजसः ॥५॥ । सम्भाव्य सम्भवं शत्रुस्त्वया जीयेत यद्यपि । तथापि भ्रातृपुत्राणां विनाशस्तव निश्चितः ॥६॥ इति ज्ञात्वा प्रसादं नः कुरु नाथामियाचितः । अस्मदीयं हितं वाक्यं भग्नं पूर्व न जातुचित् ॥७॥ त्यज सीतां भजात्मीयां धर्मबुद्धिं पुरातनीम् । कुशली जायतां लोकः सकलः पालितस्त्वया ।।८।। राघवेण समं सन्धि कुरु सुन्दरभाषितम् । एवं कृते न दोषोऽस्ति दृश्यते तु महागुणः ॥३॥ भवता परिपाल्यन्ते मर्यादाः सर्वविष्टपे । धर्माणां प्रभवस्त्वं हि रत्नानामिव सागरः ॥१०॥
अथानन्तर रावण, गुप्तचरोंके द्वारा विशल्याके चरितके अनुरूप लक्ष्मणका स्वस्थ होना आदि समाचार सुन आश्चर्य और ईर्ष्या दोनोंसे सहित हुआ तथा मन्द हास्य कर धीमी आवाज से बोला कि क्या हानि है ? तदनन्तर मन्त्र करनेमें निपुण मृगाङ्क आदि मन्त्रियोंने उससे कहा ॥१-२॥ कि हे देव ! यथार्थ एवं हितकारी बात आपसे कहता हूँ आप कुपित हो चाहें संतुष्ट । यथार्थमें सेवकोंको निर्भीक हो कर हितकारी उपदेश देना चाहिए ॥३॥ हे देव ! आप देख चुके हैं कि राम-लक्ष्मणको पुण्य कर्मके प्रभावसे यत्नके विना ही सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी विद्याएँ प्राप्त हो चुकी हैं ॥४॥ आपने यह भी देखा है कि उनके यहाँ भाई कुम्भकर्ण तथा दो पुत्र बन्धनमें पड़े हैं तथा परम तेजकी धारक दिव्य शक्ति व्यर्थ हो गई है ॥५॥ संभव है कि यद्यपि आप शत्रुको जीत लें तथापि यह निश्चित समझिए कि आपके भाई तथा पुत्रोंका विनाश अवश्य हो जायगा ॥६॥ हे नाथ ! हम सब याचना करते हैं कि आप यह जान कर हम पर प्रसाद करो-हम सब पर प्रसन्न हूजिए । आपने हमारे हितकारी वचनको पहले कभी भग्न नहीं किया ॥७॥ सीताको छोड़ो और अपनी पहले जैसी धर्मबुद्धिको धारण करो। तुम्हारे द्वारा पालित समस्त लोग कुशल-मंगलसे युक्त हों ।।८॥ रामके साथ सन्धि तथा मधुर वार्तालाप करो क्योंकि ऐसा करने में कोई हानि नहीं दिखाई देती अपितु बहुत लाभ ही दिखाई देता है।६।। समस्त संसारकी मर्यादाएँ आपके ही द्वारा सुरक्षित हैं-आप ही सब मर्यादाओंका पालन
५. लक्ष्मीधरस्वन्तं म० ।
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