Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ विषयानुक्रमणिका ___15 लक्ष्मण की आठ पट्टरानियों के आठ प्रमुख पुत्र उन्हें समझाकर शान्त करते हैं और स्वयं संसार से विरक्त हो दीक्षा धारण कर लेते हैं। ३४२-३४६ एक सौ ग्यारहवाँ पर्व वज्रपात से भामण्डल की मृत्यु का वर्णन। ३५०-३५१ एक सौ बारहवाँ पर्व ग्रीष्म, वर्षा और शीत ऋतु के अनुकूल राम-लक्ष्मण के भोगों का वर्णन। वसन्त ऋतु के आगमन से संसार में आनन्द छा गया है। हनूमान् अपनी स्त्री के साथ मेरु पर्वत की वन्दना के लिए जाते हैं। अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन कर जब वह भरतक्षेत्र को वापस लौट रहा थे तब आकाश में विलीन होती हुई उल्का को देखकर वह संसार से विरक्त हो जाते हैं। ३५२-३५६ एक सौ तेरहवाँ पर्व हनूमान् की विरक्ति का समाचार सुनते ही उनके मन्त्रियों तथा स्त्रियों में भारी शोक छा जाता है। सबने भरसक प्रयत्न किया कि ये दीक्षा न लें परन्तु हनूमान् अपने ध्येय से विचलित नहीं होते और वे धर्मरत्न नामक मुनिराज के पास दीक्षा धारण कर लेते हैं तथा अन्त में निर्वाणगिरि नामक पर्वत से मोक्ष प्राप्त करते हैं। . ३६०-३६३ ___ एक सौ चौदहवाँ पर्व ___ लक्ष्मण के आठ कुमारों और हनूमान् की दीक्षा का समाचार सुन श्रीराम यह कहते हुए हँसते हैं कि अरे ! इन लोगों ने क्या भोग भोगा ? सौधर्मेन्द्र अपनी सभा में स्थित देवों को धर्म का उपदेश देता हुआ कहता है कि सब बन्धनों में स्नेह का बन्धन सुदृढ़ बन्धन है, इसका टूटना सरल नहीं। ३६४-३६८ एक सौ पन्द्रहवाँ पर्व राम और लक्ष्मण के स्नेह-बन्धन की परख करने के लिए स्वर्ग से दो देव अयोध्या आये हैं और विक्रिया से झूठा रुदन दिखाकर लक्ष्मण से कहते हैं कि 'राम की मृत्यु हो गयी'। यह सुनते ही लक्ष्मण का शरीर निष्प्राण हो गया। अन्तःपुर में कुहराम छा गया। राम दौड़े आये परन्तु लक्ष्मण के निर्गत प्राण वापस नहीं आये। देव अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते हुए वापस चले जाते हैं। इस घटना से लवण ओर अंकश विरक्त हो दीक्षित हो जाते हैं। ३६६-३७३ एक सौ सोलहवाँ पर्व लक्ष्मण के निष्प्राण शरीर को राम गोदी में लिये फिरते हैं। पागल की भाँति करुण विलाप करते हैं। ३७४-३७७ एक सौ सत्रहवाँ पर्व लक्ष्मण के मरण का समाचार सुन सुग्रीव तथा विभीषण आदि अयोध्या आते हैं और संसार की स्थिति का वर्णन करते हुए राम को समझाते हैं। ३७८-३८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 492