Book Title: Padmapuran Part 3
Author(s): Dravishenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 16
________________ पद्मपुराण - एक सौ पाँचवाँ पर्व तृण और काष्ठ से भरी वापिका देख राम व्याकुल होते हैं परन्तु लक्ष्मण कहते हैं कि आप व्यग्र न हों, सीता जी का माहात्म्य देखें। सीता पंच परमेष्ठी का स्मरण कर अग्निवापिका में कूद पड़ती है। कूदते ही समस्त अग्नि जलरूप हो जाती है। वापिका का जल बाहर फैलकर उपस्थित जनता को प्लावित करने लगता है जिससे लोग घबरा जाते हैं। अन्त में राम के पादस्पर्श से बढ़ता हुआ जल शान्त हो जाता है। कमल-दल पर सीता आरूढ़ है। लवणांकुश उसके समीप पहुँच जाते हैं। रामचन्द्र जी अपने अपराध की क्षमा माँगकर घर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। परन्तु सीता संसार से विरक्त हो चुकी होती है इसलिए वह घर न जाकर पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षा ले लेती है।...राम सर्वभूषण केवली के पास जाते हैं। केवली की दिव्य ध्वनि द्वारा धर्म का निरूपण। चतुर्गति के दुःखों का वर्णन श्रवण कर राम पूछते हैं कि भगवन् ! क्या मैं भव्य हूँ ? इसके उत्तर में केवली कहते हैं कि तुम भव्य हो और इसी भव से मोक्ष प्राप्त करोगे। २७९-२६८ एक सौ छठवाँ पर्व विभीषण के पूछने पर केवली द्वारा राम-लक्ष्मण और सीता के भवान्तरों का वर्णन। २६६-३१७ एक सौ सातवाँ पर्व संसार-भ्रमण से विरक्त हो कृतान्तवक्त्र सेनापति राम से दीक्षा लेने की आज्ञा माँगता है। राम उससे कहते हैं कि तुमने सेनापति दशा में कभी किसी की वक्र दृष्टि सहन नहीं की अब मुनि होकर नीचजनों के द्वारा किया हुआ तिरस्कार कैसे सहोगे ? इसके उत्तर में सेनापति कहता है कि जब मैं आपके स्नेहरूपी रसायन को छोड़ने के लिए समर्थ हूँ तब अन्य कार्य असह्य कैसे हो सकते हैं ? राम उसकी प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि यदि तुम निर्वाण प्राप्त कर सको या देव होओ तो मोह में पड़े हुए मुझ को सम्बोधित करना न भूलना। सेनापति राम का आदेश पाकर दीक्षा ले लेता है। सर्वभूषण केवली का जब विहार हो जाता है तब राम सीता के पास जाकर उसकी कठिन तपश्चर्या पर आश्चर्य प्रकट करते हैं। ३१८-३२३ एक सौ आठवाँ पर्व श्रेणिक के प्रश्न करने पर इन्द्रभूति गणधर सीता के दोनों पुत्रों लवण और अंकुश का चरित कहते हैं। ३२४-३२७ एक सौ नौवाँ पर्व सीता बासठ वर्ष तप कर अन्त में तैंतीस दिन की सल्लेखना धारण कर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र होती है। अच्युत स्वर्ग के तत्कालीन इन्द्र राजा मधु का वर्णन। ३२८-३४१ एक सौ दसवाँ पर्व कांचन नामक नगर के राजा कांचनरथ की दो पुत्रियाँ-मन्दाकिनी और चन्द्रभाग्या जब स्वयंवर में क्रम से अनंगलवण और मदनांकुश को वर लेती हैं तब लक्ष्मण के पुत्र उत्तेजित हो जाते हैं परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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