Book Title: Kasaypahudam Part 09
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[बंधगो ६ जइ एवं, अण्णत्थुक्कस्साणुभागसंकमो ण कयाई लब्भदि ति आसंकाए णिरायरण?मण्गदरविसेसणं कदं, तदुक्कस्सबंधेणाघादिदेण सह एइ दियादिसुप्पण्णस्स तदुवलंभे विरोहाभावादो। णवरि असंखेजवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु] मणुसोववादियदेवेसु च
ओघुकस्साणुभागसंकमो ण लब्भदे, तमघादेदूण तत्थुप्पत्तीए असंभवादो। एदेण सम्माइट्ठीसु वि मिच्छत्तुक्कस्साणुभागसंकमो पडिसिद्धो दट्ठव्यो, उकस्साणुभागं बंधिय आवलियपडिभग्गस्स कंडयघादेण विणा सम्मत्तगुणग्गहणाणुववत्तीदो। कधमेसो विसेसो सुत्तेणाणुवइट्ठो णजदे ? ण, वक्खाणादो सुत्तरादो तंतजुत्तीए च तदुवलद्धीदो। जहा मिच्छत्तस्स तहा सेसकम्माणं पि उक्कस्ससामित्तं णेदव्वं, विसेसाभावादो ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं.
एवं सव्वकम्माणं। ६ ७७. सव्वेसिमुक्कस्साणुभागं बंधिदूणावलियपडिभग्गण्णदरजीवम्मि सामित्तपडिलंभस्स पडिसेहाभावादो। संपहि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमबंधपयडीणमेस कमो ण संभवइ ति पयारंतरेण तेसि सामित्तणिद्देसो कीरदे
ॐ णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंकमो कस्स ? दृष्टि और सर्वसंक्लिष्ट होता है। यदि ऐसा है तो अन्यत्र उत्कृष्ट अनुभागका संक्रम कभी भी नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार ऐसी आशंका होनेपर उसका निराकरण करनेके लिए सूत्रमें 'अन्यतर' विशेषण दिया है, क्योंकि घात किये विना उसके उत्कृष्ट बन्धके साथ एकेन्द्रियादि जीवोंमें उत्पन्न हुए जीवके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमके प्राप्त होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात वर्षकी युवाले तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें तथा जहाँके जो देव मर कर नियमसे मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं ऐसे आनतादिक देवोंमें ओघ उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसका घात किये बिना इन जीवोंमें उत्पन्न होना असम्भव है। इस वचनसे सम्यग्दृष्टि जीवोंमें भी मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसंक्रमका निषेध जान लेना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जिसे प्रतिभग्न हुए एक आवलि काल हुआ है ऐसा जीव काण्डकघात किये विना सम्यक्त्व गुणको ग्रहण नहीं कर सकता।
शंका-यह विशेषता सूत्रमें नहीं कही गई है, इसलिए उसे कैसे जाना जा सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि व्याख्यानसे, सूत्रसे तथा सूत्रानुकूल युक्तिसे इस विशेषताका ज्ञान हो जाता है।
जिस प्रकार मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व है उसी प्रकार शेष कर्मोंका भी उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार इस बातका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है. * इसी प्रकार सब कर्मों का उत्कृष्ट स्वामित्व जानना चाहिए ।
६७७. क्योंकि सब कर्मोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागको बाँध कर प्रतिभग्न हुए जिसे एक श्रावलि काल हुआ है ऐसे अन्यतर जीवमें सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होनेमें कोई प्रतिषेध नहीं है । किन्तु जो बन्ध प्रकृतियाँ नहीं हैं ऐसी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंमें यह क्रम सम्भव नहीं है, इसलिए प्रकारान्तरसे उनके उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश करते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग