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आप्तवाणी-९
मोक्षमार्ग का राहखर्च हमें यदि कोई कहे, 'दादा, इन सब के पैर छुइए।' तो सभी के पाँच-पाँच बार पैर छू लूँ। हम तो किसी के भी पैर छू लें। जिस तरीके से पैर छूने हो न, वह तरीका हमारे पास है। एक तो आत्मा के पैर छूना
और उस व्यक्ति के भी पैर छूना, दोनों ही तरीके हमारे पास हैं। वे कहें, 'आत्मा के पैर मत छूना, व्यक्ति के पैर छूओ।' तो व्यक्ति के भी पैर छू लूँगा। अतः नम्रता होनी चाहिए। बिल्कुल नम्र, इस तरह पानी में घुल जाए, तो उसका कल्याण हो जाएगा और जब तक डली अंदर है, तब तक घुला नहीं है, तब तक चक्कर लगाता रहेगा।
जैसे-जैसे बड़े व्यक्ति' के रूप में स्थापना होती है, वैसे-वैसे अधिक नम्र होता जाता है, अकड़ नहीं रहती। अकड़ तो हल्के इंसानों में होती है। यह 'ज्ञान' मिलने के बाद अकड़ किसे रहती है ? हल्के इंसानों को! वर्ना क्या अकड़ रहती होगी?
फिर, सही बात हो तो तुरंत मान जाता है, उसे सरल कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यों तो, कोई कहे और हम मान लें न, तो उसमें कई बार हम फँस भी सकते हैं।
दादाश्री : गच्चा खाना अच्छा है। ऐसा है न, एक संत ने कहा है कि, 'मैं मनुष्य जाति पर विश्वास रखता हूँ।' तब कोई कहे, 'यदि कोई आपको ठग लेगा तो?' तब उन्होंने कहा, 'एक ठगेगा, दो ठगेंगे, लेकिन एक दिन मुझे ऐसा व्यक्ति मिल जाएगा कि मेरा काम हो जाएगा।' अर्थात् वे क्या कहते हैं ? धोखा खाते-खाते काम अच्छा होगा। और जो ठगे जाने के लिए नहीं रुके वे तो अगर भटक-भटककर मर जाएँगे, तो भी ठिकाना नहीं पड़ेगा क्योंकि विश्वास ही नहीं बैठेगा न! जो शंकाशील रहेंगे, उन्हें कब किनारा मिलेगा? आपको समझ में आती है यह 'थ्योरी'?
सरलता अर्थात् किसी के कहते ही तुरंत मान ले, भले ही ठगा जाए। एक ठगेगा, दो ठगेंगे, पाँच ठगेंगे, लेकिन फिर सही इंसान मिल जाएगा उसे! वर्ना सही इंसान मिलेगा ही नहीं न! 'सिस्टम' अच्छा है