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आप्तवाणी - ९
शायद ज़रा लड़-झगड़ लेता है लेकिन निकाल ले आता है न ? अहंकारवाला निकाल नहीं लाता वह आगे बैर बढ़ाता ही जाता है । ममतावाला तो जेब कटने के तीन दिनों बाद भी शोर मचाता रहता है। कोई याद करवाए न, तो तुरंत ही 'अरे! अरे ! क्या करूँ ?' ऐसा करता है। जबकि आपको तो 'यह गया सो गया।' यानी अहंकार और ममता, दोनों चले गए हैं, पोतापणुं रहा है। उसे देखो न !
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इसलिए कृपालुदेव ने कहा है न, कि 'ज्ञानीपुरुष' में पोतापणुं नहीं होता। कृपालुदेव ने — पोतापणुं' शब्द लिखा है, कुछ भारी लिखा है ! आपको कैसा लगता है ? कृपालुदेव ने यह शब्द अच्छा लिखा है न अब यह कौन समझाए ? जिस भाषा में कहना चाहते हैं ऐसी भाषा कौन समझा सकता है यहाँ पर ?
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानीपुरुष' समझा सकते हैं न !
दादाश्री : हाँ। क्योंकि और किसी का काम ही नहीं है न! सत्ता गई, पोतापणुं रह गया
प्रश्नकर्ता : आप्तसूत्र में वाक्य है।
"ज्ञानी नुं अंतःकरण केवी रीते काम करतुं हशे ?! 'पोते' खसी जाय तो अंतःकरणथी आत्मा जुदो ज छे।" यह समझाइए ।
दादाश्री : एक ओर अंतःकरण सांसारिक कार्य करता है और दूसरी ओर आत्मा, आत्मा का कार्य करता है । 'ज्ञानी' दखलंदाजी नहीं करते।
अंत:करण किसे कहते हैं ? जिसमें से कर्ता भाव उत्पन्न होता है, 'मैं कुछ कर रहा हूँ,' ऐसा भाव उत्पन्न होता है । 'ज्ञानी' उस अंत:करण से जुदा होते हैं। यह 'ज्ञान' देने के बाद आपमें 'रियली' कर्ता भाव नहीं रहा लेकिन 'रिलेटिवली' कर्ता भाव है यानी कि 'डिस्चार्ज' कर्ता भाव रहा है लेकिन आपको अभी अंदर थोड़ी दखल रहती है जबकि 'ज्ञानीपुरुष' में ऐसी दखल नहीं रहती । 'खुद' खिसक जाए तो 'अंत:करण'