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[९] पोतापणुं : परमात्मा
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दादाश्री : किसी को दुःख हो, ऐसा पोतापणुं किस काम का? पोतापणुं खुद की प्रकृति के रक्षण करने तक ही होता तो बात अलग थी। उसे पोतापणुं कहते हैं। वर्ना उसे तो पोतापणुं भी नहीं कहेंगे।
अभी तक तो लोगों का पोतापणुं कैसा है? प्रकृति का रक्षण करने की बात तो है ही, लेकिन 'अटेक' भी कर देते हैं। सामने वाले पर प्रहार भी कर देते हैं। तो इस बड़े पोतापणुं को निकालना है न! प्रकृति का रक्षण करना वह पोतापणं, ऐसा पोतापणुं करते हैं क्या अपने महात्मा? इसीलिए सहज नहीं हो पाता है। यह तो ज़रा सा भी अपमान करे तो उससे पहले रक्षण करते हैं, ज़रा कुछ और करे, वहाँ रक्षण करते हैं। ये सारा सहजपन आने ही नहीं देता न!
कुछ प्रकार से प्रकृति का रक्षण रहता है, लेकिन बाकी सारा पोतापणुंचला जाना चाहिए। आप बेअक्ल हो' ऐसा कह दे तो वहाँ पर रक्षण नहीं करना है। इसका स्वामी कौन है ? अहंकार। जो प्रतिकार करता है वह अहंकार है। इसका प्रतिकार कौन करता है? अहंकार! लेकिन अहंकार तो चला गया है, और बेकार ही रक्षण कर रहा है न!
वह तो जितना हो पाए उतना सही है, लेकिन ऐसी बातें शास्त्रों में नहीं होती, प्रकृति का रक्षण करने की बातें नहीं होतीं। क्योंकि कौन है जो प्रकृति का रक्षण नहीं करता? भगवान के अलावा बाकी सभी प्रकृति का रक्षण करते हैं और प्रकृति पराई है फिर भी आप रक्षण करते हो। पराई है ऐसा जानते हो, फिर भी जो पराई है उससे शादी की तैयारी करते हो। वह भी आश्चर्य है न! अहंकार और ममता चले गए हैं लेकिन पोतापणुं बचा है। देखो न, यह आश्चर्य ही है न!
"देखने वाले' में नहीं है पोतापणुं पोतापणां को हमने क्या कहा है? प्रश्नकर्ता : प्रकृति का रक्षण करना, वही पोतापणुं है। दादाश्री : तो प्रकृति का रक्षण करना चाहिए?