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[९] पोतापणुं : परमात्मा
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और यदि एक वाक्य बोले तो मैं स्तब्ध हो जाऊँ। 'बस, हो गया!' तब मैं कहूँगा कि 'बस, हो गया!' एक ही वाक्य मुझे सुनाई दे न, तो मैं समझ जाऊँगा कि 'कहना पड़ेगा यह तो!' लेकिन ऐसा होता नहीं है न! वाक्य किस तरह से निकलेगा? उसकी वाणी निकलेगी किस तरह से?
प्रश्नकर्ता : आपका कहा हुआ भी यदि ठीक प्रकार से कह दें तो बहुत हो गया।
दादाश्री : यहाँ पर ठीक तरह से कह दें तब तो सोना (स्वर्ण) कहलाएगा।
'विज्ञान' में सिर्फ बात को समझना ही है
प्रश्नकर्ता : यह पुरुषार्थ की बात बहुत बड़ी चीज़ है। 'ज्ञान' के बाद बस यही करना बाकी रहा है!
दादाश्री : यह गहन बात सभी ने नहीं समझी है न! यह तो सब अंधाधुंध चलता रहता है। बात कितनी गहन होती है, लेकिन उतना जाना ही नहीं होता न! सुना ही नहीं होता न!
प्रश्नकर्ता : अभी तो, 'मूल आत्मा' आकाश जैसा सूक्ष्म है, वहाँ तक, उतनी सूक्ष्म बात को पकड़ना है न?
दादाश्री : हाँ, ऐसी चीज़ को पकड़ना है लेकिन बहुत दौड़ने की ज़रूरत नहीं है। पेट में दुःखने लगे, उस तरह से नहीं दौड़ना है। बात को समझना ही है। 'ईज़िली' सहज प्रकार से करना है। बात को समझना ही है, करना कुछ नहीं है।
ऐसी सूक्ष्मता से कातने की हर एक की इच्छा होती ही है न! धनवान होने की किसे इच्छा नहीं होती? ये लोग इतने साल बाज़ार में किसलिए भागदौड़ करते हैं ? लक्ष्मी के लिए ही यह भागदौड़ है न, दुनिया की?!
प्रश्नकर्ता : लेकिन आपके पास शब्दावलंबन से फिर प्रगति में