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आप्तवाणी-९
लेकिन हमारा यह सब 'ड्रामेटिक' होता है। एक भाई मुझसे कहने लगें, 'मेरी ज़मीन पर आप पधारेंगे?' मैंने कहा, 'मुझे क्या हर्ज है!'
और हम तो सबकुछ पूछते हैं, कि 'ज़मीन का सौदा कब किया, क्या भाव से ली? क्या देना है।' और तब कोई तो ऐसा समझेगा कि ये दादा तो ज़मीन के दलाल बन गए!
और किसी को शरीर पर ज़रा सा सफेद दाग़ हो जाए यों ही, कुछ भी होने वाला न हो, फिर भी वह मुझे दिखाता रहता है तब मैं यों ही हाथ फेर देता हूँ ऐसे, उसके मन के समाधान के लिए।
प्रश्नकर्ता : यह भी नाटक ही है न?
दादाश्री : नाटक ही! इसके अलावा भी पूरे दिन हमारा नाटक ही चलता है। पूरा दिन नाटक ही करता हूँ! आपके वहाँ दर्शन करने ले गए थे और वहाँ पर दर्शन दिए, वह भी नाटक और अगर नाटक नहीं होता तब तो उसमें मेरा पोतापणुं होता। पोतापणुं नहीं है इसलिए नाटक हो पाता है। वर्ना ऐसा होता रहता कि 'मुझे दर्शन देने जाना पड़ेगा। मुझे दर्शन देने जाना है' लेकिन ऐसा कुछ नहीं।
यानी यह 'ड्रामा' ही है। पूरे दिन मैं 'ड्रामा' ही करता हूँ। वहाँ सत्संग में बैठता हूँ, ये जवाब दे रहा हूँ, वह भी 'ड्रामा' ही है। पूरे दिन 'ड्रामा' ही है लेकिन पोतापणुं कम हो जाने के बाद ही यह ड्रामा शुरू हो पाता है। यों ही नहीं हो पाता।
फिर भी रहा पोतापणुं कुछ लोग तो ऐसा ही समझते हैं कि 'मुझमें पोतापणुं है ही नहीं न, मुझमें मेरापन है ही नहीं न, अब।' जबकि यों तो कषाय में बरतता है। लो! बरतता है कषाय में और कहता है 'मुझमें पोतापणुं रहा नहीं अब।' पोतापणुं पर तो जी रहा है वह। वह पोतापणुं पर ही जी रहा है। वह पोतापणुं तो जाता ही नहीं। पोतापणुं जाना तो अति-अति मुश्किल है।
पोतापणुं जाने का मतलब क्या है ? हमारी आवाज़ नहीं रहती