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आप्तवाणी-९
इसलिए वे लोग पोटली को ले जाते हैं। वह गुनाह नहीं है। हम ही ऐसा कहते हैं कि, 'भाई, आपको ठीक लगे तब ले जाना।' क्योंकि पोतापर्यु नहीं है लेकिन जिनमें पोतापणुं है, वे पोटली की तरह जाएँगे क्या? वह तो कहेंगे, 'आज नहीं आना है।' जबकि मेरा तो पोतापणुं है ही नहीं! कोई पोटली बनने को तैयार होगा? अब क्या एक भी इंसान ऐसा कहेगा?!
__ अतः हमें तो मुबंई या बड़ौदा कुछ लोग पूछते हैं कि, 'दादा आप जल्दी आए होते तो अच्छा था।' ऐसा सब कहते हैं। तब मैंने कहा, 'पोटली की तरह मुझे ले आते हैं तब यहाँ आता हूँ और पोटली की तरह ले जाते हैं तब जाता हूँ।' तब फिर वे समझ जाते हैं। फिर कहते हैं कि, 'इसे पोटली की तरह कहते हैं?' अरे, यह पोटली ही है न, नहीं तो और क्या है यह? अंदर भगवान हैं संपूर्ण! लेकिन बाहर तो पोटली ही है न! इसलिए पोतापणुं रहा ही नहीं न!
मुझे जहाँ उठाकर ले जाएँ वहाँ जाते हैं हम। कई चीजें हमें नहीं खानी हो तो भी खाते हैं, नहीं पीनी हो फिर भी पीते हैं, न चाहते हुए भी सब करते हैं हम। और इसमें किसी का चल भी नहीं सकता। अनिवार्य है न! आपके 'एन्करिजमेन्ट' के लिए हम आपकी चाय पीते हैं। अगर वह चाय बहुत कड़क हो, प्रकृति को माफिक नहीं आए ऐसी हो, फिर भी आपको आनंद होता है न, कि 'दादा' ने मेरी चाय पी, तो इसलिए हम वह चाय पी लेते हैं।
यह इतने दिनों की यात्रा की है, इसमें भी सभी के कहे अनुसार ही रहे। वे कहें कि 'यहाँ रहना है।' तब मैं कहता हूँ कि, 'हाँ, रहना है।' वे कहें कि 'यहाँ से उठिए अब' तो वैसा। हममें 'हमारापन' नहीं होता, 'हमारापन' का उन्मूलन हो गया है। बहुत दिनों तक 'हमारापन' किया है। हममें तो पहले से ही ममता बहुत कम थी, इसलिए झंझट ही नहीं थी कोई।
ऐसा है न, मैं तो सभी के अधीन रहता हूँ, इसका क्या कारण है ? मुझमें पोतापणुं नहीं है इसलिए मैं तो बिल्कुल संयोगों के अधीन रहता