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[९] पोतापणुं : परमात्मा
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हूँ। मैं तो आपके भी अधीन रहता हूँ, तो भला संयोगों के अधीन तो रहूँगा ही न! अधीनता अर्थात् संपूर्णतः निअहंकारिता! अधीनता तो बहुत अच्छी चीज़ है। जो हमारे साथ हैं, वे जैसा कहें हमें वैसा करना है। हमारा कोई अभिप्राय नहीं होता। हमें ऐसा लगे कि अभी उनकी बात में कमी है तब हम उनसे कहते हैं कि, 'भाई, ऐसा करो।' उसके बाद हम अधीन ही रहते हैं निरंतर।
'ज्ञानी' असहज नहीं होते हमारी यह साहजिकता कहलाती है। साहजिकता में कोई परेशानी नहीं होती। दखल ही नहीं रहती न, किसी तरह की। आप ऐसा कहो तो ऐसा और वैसा कहो तो वैसा। पोतापणुं नहीं है न! और आप क्या ऐसे हो कि पोतापणुं छोड़ दो?! हमें तो अगर कहें कि 'गाड़ी में जाना है' तो वैसा। वे वापस कल कहेंगे कि, 'ऐसे जाना है' तो वैसे। ऐसा नहीं है कि 'नहीं'। हमें कोई परेशानी ही नहीं है। हमारा खुद का मत नहीं रहता। वह है साहजिकपन। औरों के मत से चलना, वह है साहजिकपन।
हममें साहजिकता ही होती हैं। निरंतर साहजिकता ही रहती है। क्षणभर भी साहजिकता से बाहर नहीं जाते। वहाँ हमारा पोतापणुं होता ही नहीं, इसलिए कुदरत जैसा रखती है वैसे रहते हैं। पोतापणुं नहीं छूट जाए, तब तक कहाँ से सहज हुआ जा सकेगा? पोतापणुं हो तब तक सहज कैसे हो सकेंगे लेकिन? पोतापणुं छोड़ दे तभी सहज होंगे। सहज होंगे तो उपयोग में रहा जा सकेगा।
उसके बाद ही ड्रामेटिक रहा जा सकेगा 'पोतापणुं' तो बहुत बड़ा शब्द है। ज़रा सा भी पोतापणुं, किसी भी प्रकार का पोतापणुं हममें नहीं है। और फिर भी हीरा बा को साथ में बिठाते हैं। लोग पूछे, 'ये कौन है ?' तब हम कहते हैं, 'हमारी पत्नी हैं।' सबकुछ कहते हैं हम और ऐसा भी कहते हैं कि, 'आपके बगैर मुझे अच्छा नहीं लगता।' ऐसा कहता हूँ तो उन्हें कितना आनंद होता है!