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[२] उद्वेग : शंका : नोंध
संशय तो काम का ही नहीं है। संशय तो, ये जो चाकू लेकर मारने जाते होंगे, उन्हें ज़रा सा भी संशय नहीं होता, तभी तो वे मारने जाते हैं ! और मरने वाले को भी ज़रा सा भी संशय नहीं होता, तभी मरता है लेकिन वह एक ही बार मरता है और यह संशयात्मा, वह तो हमेशा के लिए मरा हुआ ही है।
शंका अलग, जिज्ञासा अलग प्रश्नकर्ता : शंका और जिज्ञासा में क्या फर्क है?
दादाश्री : शंका और जिज्ञासा में क्या संबंध है? शंका और जिज्ञासा, वे दोनों एक परिवार के तो हैं ही नहीं, लेकिन रिश्तेदार तक भी नहीं हैं।
प्रश्नकर्ता : ये वैज्ञानिक जो हैं, वे लोग शोध करते हैं, उसमें खुद शंका रखकर ही आगे बढ़ते हैं।
दादाश्री : कोई ऐसा वैज्ञानिक पैदा नहीं हुआ है कि जो एक मिनट से अधिक शंका रखे। नहीं तो उसका विज्ञान चला जाएगा, खत्म हो जाएगा। क्योंकि शंका अर्थात् आत्महत्या! जिसे शंका करनी हो, वह करे।
प्रश्नकर्ता : वैज्ञानिक बगैर शंका के मानते नहीं है। वे लोग शंका करते हैं इसलिए खोज कर पाते हैं।
दादाश्री : वह शंका नहीं है। वह उत्कंठा है, जानने की। उन्हें शंका नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : आप लोगों पर शंका करने को मना करते हैं ?
दादाश्री : लोग क्या, कहीं पर भी शंका नहीं करनी चाहिए। इस पुस्तक पर भी शंका नहीं करनी चाहिए। शंका अर्थात् आत्महत्या !
प्रश्नकर्ता : तो फिर हर एक पुस्तक में लिखा हुआ सबकुछ मान लेना चाहिए?