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[४] ममता : लालच
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हुई कि सबकुछ तैयार कर देगी। सिर पर बाल नहीं होंगे तो खरीदकर चिपका देंगे।
अनंत जन्मों से यही किया है। उसी के हैं ये लक्षण! ये दुःख और ये अड़चनें उसी की हैं सारी, यही किया है! नगाड़ा बजाने वाले पाँचसात-दस लोगों की ही ज़रूरत है कि फिर चल पड़ेगी गाड़ी! इसकी ज़िम्मेदारी क्या आएगी उसका भान नहीं है। अगर इस जन्म में भी छूट पाए तो अच्छा है, बहुत अच्छा है लेकिन इस बात को समझेगा तो छूटेगा। वर्ना लालच तो मोक्ष में नहीं जाने देता।
प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसे नगाड़ा बजानेवालों को इकट्ठा करके खुद ज्ञानी बन जाए, तो उसकी ज़िम्मेदारी क्या आती है ?
दादाश्री : वह तो धधकती हुई अग्नि! नर्कगति! वह भुगत लेने के बाद फिर वापस तैयार होकर यहाँ पर आता है, वापस फिर वही का वही! जो लालच पड़ चुका है, वह जाता नहीं है न! 'ज्ञानीपुरुष' हो तब कुछ बदल जाता है।
हमें खुद को लालच नहीं हो तो पीछे-पीछे कीट-पतंगे भी नहीं मँडराएँगे। जहाँ लालच है, वहीं पर कीट-पतंगे मँडराते हैं। जिसमें लालच नहीं है वह दुनिया का राजा! जबकि लालची तो लार टपकाता रहे, तब भी कुछ नहीं होता।
लालच को जिंदा रहने की और मज़बूत बनने की जगह मिल जाती है, तो अब अगर वह जगह देंगे तभी न? इसलिए वहाँ फिर प्रतिक्रमण करने पड़ेंगे। 'अब फिर से इस रास्ते पर नहीं जाना है' कहना। आपको कहना चाहिए कि, 'चंदूभाई, फिर से इस रास्ते पर नहीं जाना है।'
खुद की छूटने की मज़बूत भावना, 'स्ट्रोंग' भावना हो, लेकिन वह लालच वगैरह उसमें रुकावट डालता रहता है न! लेकिन अगर खुद के ध्यान में रखे, कि 'कब खत्म कर दूँ?' जैसे दुश्मनों को ध्यान में रखते हैं न, उसी तरह। तब इसका निबेड़ा आएगा, वर्ना निबेड़ा नहीं आएगा।