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[५] मान : गर्व : गारवता
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अर्थात् गर्व नहीं होता किसी चीज़ का क्योंकि अहंकार ही नहीं होता तो गर्व कहाँ से होगा? जहाँ अहंकार होता है, वहाँ गर्व रहता ही है। अत: उनमें गर्व नहीं होता।
अब वह गर्व हमारे पास नहीं है। 'कोई क्रिया मैंने की है,' ऐसा हमें रहता ही नहीं। अब, इसके कर्ता का रस चखता है, इसलिए जी पाते हैं ये लोग। अभी भी शास्त्र पढ़ने वाले बड़े-बड़े लोग होते हैं लेकिन 'मैंने किया' उसी आधार पर जीते हैं, उसी की मस्ती में!
इस गर्वरस के सामने उन्हें कुछ अच्छा ही नहीं लगता। गर्वरस बहुत पसंद है उसे। कहेगा, 'मैंने त्याग किया, स्त्री का त्याग किया, करोड़ों रुपये छोड़कर आया हूँ, तो मोक्ष के लिए ही आया होगा न!' तब मैंने कहा, 'किसलिए, वह तो आप समझो। आपको अभी तक कौन सा रस चखना पसंद है, उसका क्या पता?! रुपये का रस अच्छा नहीं लगा लेकिन दूसरे तो तरह-तरह के रस होते हैं न और तरह-तरह की कीर्ति होती है न।' जब तक गर्वरस चखते हैं, तब तक किसी को मोक्ष की बात नहीं करनी चाहिए।
शराबी को तो, हम पानी छिड़कें न तो कैफ उतर जाता है या नहीं उतर जाता, पाँच-सात बालटी पानी डालें तो? फिर क्या कहता है बेचारा कि, 'साहब, मेरे जैसा मूर्ख कोई है ही नहीं, मैं कुछ भी नहीं समझता हूँ। मैं मूर्ख हूँ और साहब, मुझे मारना हो तो मारो लेकिन मुझे कुछ दे दो!' तो मैं सब से पहले उसे मोक्ष दूंगा क्योंकि मोक्ष प्राप्ति के लायक हो गया, ऐसा कहा जाएगा। मोक्ष के लिए इतनी ही योग्यता चाहिए!
गर्वरस चढ़ाए कैफ शास्त्रज्ञान तो बहुत जन्मों से पढ़ते आए हैं लेकिन कुछ हुआ नहीं। इसलिए कृपालुदेव ने कहा है न, शास्त्रज्ञान से निबेड़ा नहीं है, अनुभवज्ञान से निबेड़ा है इसलिए ज्ञानी के पास जा। पुस्तकों में क्यों सिर फोड़ रहा है और आँखें बिगाड़ रहा है ?! और बेकार ही बिना बात के गा रहा है! फिर मन में कैफ बढ़ता जाता है, 'मैं जानता हूँ' उसका कैफ बढ़ता है।