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आप्तवाणी-९
उसके खुद के ध्येय में 'टी.बी' ही हो जाएगी न! सड़न ही घुसने लगेगी
न!
यहाँ तो खुद का मन इतना मज़बूत कर लेना है न, कि "इस जन्म में जो हो, भले ही देह जाए, लेकिन इस जन्म में कुछ 'काम' कर लूँ" ऐसा तय करके रखना चाहिए तब फिर अपने आप काम होगा ही। आपको अपना तय करके रखना चाहिए। आपकी तरफ से ढील नहीं रखनी है। जहाँ ऐसा प्राप्त हुआ है वहाँ ढील नहीं रखनी है। फिर जो हो वह ठीक। उसके लिए बहुत परेशान नहीं होना है और जो नहीं हुआ है उसके लिए भी बहुत परेशान नहीं होना है। यह सब तो मिल जाएगा।
खुद के पास अधिकार किसका है ? भाव! कि इतना मुझे कर लेना है। निश्चय अर्थात् खुद के अधिकार का उपयोग करना। और बाकी बाहर का रोग नहीं घुस जाना चाहिए कि 'चलो, मैं पाँच लोगों को सत्संग सुनाऊँ या ऐसा कुछ,' इसका ध्यान रखना है। नहीं तो फिर दूसरे नई तरह के रोग घुस जाएँगे और गलत रास्ते पर चला जाएगा। तब फिर क्या होगा? कोई बचानेवाला नहीं मिलेगा। अतः अगर मोक्ष में जाना हो तो ‘बात करने' में मत पड़ना। कुछ पूछे तो कहना कि 'मैं नहीं जानता।'
ये तो हम सारे भयस्थान दिखा रहे हैं। भयस्थान नहीं दिखाएँगे न, तो सब उल्टा हो जाएगा। ये सभी पुण्यशाली हैं न, बात भी प्रकट हुई है न! नहीं तो बात कैसे पता चलेगी? और मैं इसमें कहाँ गहरा उतरने जाऊँ ?! यह तो बात निकली तो निकली, नहीं तो कौन जानता था कि ऐसा सब चल रहा होगा!
गुप्त वेश में निकल जाओ जैसा हो गया है वैसा मुझे कह दे, उसी को आलोचना कहते हैं। जो हो गया, उसमें हर्ज नहीं है। उस सब के लिए तो क्षमा ही है लेकिन जैसा हुआ वैसा कह दे, तब से वह आलोचना कहलाती है तो उस रास्ते से वापस लौट गया। फिर हम संभाल लेंगे। यह तो जोखिमदारीवाला रास्ता है, इसलिए सावधान रहना। बहुत जोखिम है। एक अक्षर भी मत