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पोतापणुं : परमात्मा अभेदता, पूरे विश्व के साथ
यहाँ तो अभेदभाव है । आप और मैं, हम सब एक ही हैं। मुझे आपमें से किसी से कोई भेद है ही नहीं और ये इतने पचास हज़ार लोग हैं इसके बावजूद उनसे भी मुझे भेद नहीं है और इस दुनिया से भी मुझे भेद महसूस नहीं होता। यह तो, आपको भेद महसूस होता है ।
यानी एक तो, मैं इन पचास हज़ार लोगों के साथ अभेद रहता हूँ और ‘सेकन्डरी,' पूरी दुनिया के साथ अभेद रहता हूँ । मुझे किसी भी जगह पर भेद नहीं है, किसी के भी साथ। यानी दुनिया के साथ ‘सेकन्डरी’ अभेद हूँ और यहाँ 'फर्स्ट' अभेद हूँ । मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। मुझमें बुद्धि ही नहीं है इसलिए मुझे अभेद लगता है, सबकुछ खुद का ही लगता है। जब तक बुद्धि हो तभी तक भेद रहता है। बाकी जहाँ बुद्धि नहीं है, वहाँ भेद कैसा ? बुद्धि तो भेद डालती है, जुदाई दिखलाती है कि 'यह मेरा और यह तेरा ।' जहाँ पर बुद्धि है ही नहीं, वहाँ 'मेरा - तेरा' रहा ही कहाँ? यह तो भेदबुद्धि उत्पन्न हुई है - 'मैं अलग और यह अलग ।'
प्रश्नकर्ता : बस अलग होने की देर है । तभी भेद महसूस होता
हैन !
दादाश्री : और अलग हुआ मतलब उल्टा हुआ। हमें आपके प्रति भेद नहीं है, लेकिन आपको मेरे प्रति भेद है।
प्रश्नकर्ता : 'हम सब एक ही हैं,' ऐसा कई लोग कहते हैं न !