Book Title: Aptvani 09
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 501
________________ ४५० आप्तवाणी-९ रहता है, उसका कल्याण करने के लिए ही हम डाँटते हैं। नहीं तो कौन ऐसा डाँटेगा? दिमाग़ कौन खराब करेगा! यह तो सामने वाले के कल्याण के लिए डाँटना पड़ता है। वर्ना तो बाप तो बाप बनने के लिए डाँटता है। सामने वाले के हित से भी ज्यादा बाप होने की बहुत भीख होती है। पत्नी को पति झिड़कता है तो वह पति बनने के लिए ऐसा करता है! और 'ज्ञानीपुरुष' सामने वाले के कल्याण के लिए डाँटते हैं। क्योंकि पूरी दुनिया ऐसे भुन रही है जैसे शक्करकंद को भट्ठी में भूनते हैं। फॉरेन वाले भी भुन रहे हैं और यहाँ वाले भी भुन रहे हैं। 'शक्करकंद भुन रहे हैं' ऐसा किसी से कहा तब वह कहने लगा, 'दादा, कहते हैं शक्करकंद सिक रहे हैं, लेकिन अब तो जलने भी लगे हैं। जो पानी था वह खत्म हो गया और अब शक्करकंद जलने लगे हैं।' यानी ऐसी दशा है! अपने सत्संग का हेतु क्या है? जगत् कल्याण करने का हेतु है। यह भावना कोई बेकार नहीं जाती। हम क्या कहते हैं कि सर्व दुःखों का क्षय करो। ये दुःख हमसे देखे नहीं जाते। फिर भी हममें 'इमोशनल'पन नहीं होता है। साथ ही उतने ही वीतराग भी हैं। इसके बावजूद सामने वाले के दुःख हमसे सहन नहीं हो पाते क्योंकि हम हमारी सहनशक्ति जानते हैं। हमसे कैसा दु:ख सहन हो पाता था वह जानते हैं न, तो लोग ऐसा कैसे सहन कर पाते होंगे, उसका हमें पता है और वही कारुण्यता है हमारी!

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