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आप्तवाणी-९
हुआ यहाँ पर आया और मुझे देखा कि सबकुछ भूल जाता है। स्वभाव को भुलवा देती है!
सिद्धि गारवता, इन साधु-संन्यासियों व आचार्यों को होती है। उन्हें कोई कहे, 'बाप जी, मुझे यह दुःख है।' तो वे सिद्धि का उपयोग करते हैं। फिर गारवता में रहते हैं। लोग 'बाप जी, बाप जी' कहें तो खुश हो जाता है। लोग भी कुछ न कुछ रख जाते हैं, लड्डू वगैरह सब। वह खाता-पीता है और मज़े करता है। ऐसी सब गारवता में रहता है। सिद्धि मिले तो सिद्धि की गारवता में ही रहा करता है, बस। और कुछ 'एडवान्स' बनने का विचार ही नहीं करता।
प्रश्नकर्ता : यानी गारवता 'एडवान्स' बनने से रोक देती है ?!
दादाश्री : हाँ, उस गारवता में सभी लोग 'बाप जी, बाप जी' करते रहते हैं, तो वह भी खुश-खुश!
कितनी ही सिद्धि गारवता होती हैं, कितनी ही रिद्धि गारवता होती हैं, कितनी ही रस गारवता होती हैं। ऐसी अनेक प्रकार की गारवता होती है। इन शास्त्रों की भी गारवता ही है सिर्फ!
प्रश्नकर्ता : शास्त्रों की भी गारवता?
दादाश्री : बस, जहाँ पर बैठे रहना हो और हिलने का मन नहीं हो, वह सब गारवता। वर्ना, रोज़-रोज़ प्रगति करनी है।
प्रश्नकर्ता : यानी अंतिम स्टेशन तक पहुँचते हुए भले ही कितने भी ऐसे स्थल आएँ, लेकिन वहाँ रुकना नहीं है।
दादाश्री : वहाँ पर रुक नहीं जाना है। वहाँ पर जो सुख महसूस होगा, उस सुख में रुक नहीं जाना। यों तो, शास्त्र पढ़ने से भी सुख तो बरतता है क्योंकि 'ज्ञानीपुरुष' की बात है इसलिए अंदर ठंडक होती है, शांति होती है। राज्य मिल जाए और राज्य में तन्मयाकार होकर पड़े रहना, वह सभी गारवता (संसारी सुख की ठंडक में पड़े रहने की इच्छा) कहलाती है।