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आप्तवाणी-९
खास, 'स्पेशल' शिष्य लेकिन अंत में वह विरोधी बनकर खड़ा रहा। गोशाला महावीर भगवान के पास बहुत समय तक रहा। फिर उसे ऐसा लगा कि मुझे यह सारा ज्ञान समझ में आ गया, इसलिए भगवान से अलग होकर कहने लगा कि 'मैं तीर्थंकर हँ, वे तीर्थंकर नहीं हैं।' और कितनी बार तो ऐसा भी कहता था कि, 'वे भी तीर्थंकर हैं और मैं भी तीर्थंकर हूँ।' अब ऐसा रोग घुस गया, तो फिर क्या दशा होगी उसकी?!
___अब, जब महावीर भगवान के पास था तब भी वहाँ पर सीधा नहीं रहा तो हमारे पास बैठा हुआ कैसे सीधा रहेगा? यदि कुछ गड़बड़ हो जाए तो क्या दशा होगी? और वह तो चौथे आरे की बात थी। यह तो पाँचवाँ आरा (कालचक्र का बारहवाँ हिस्सा) है, अनंत जन्म खराब कर देगा।
अनादि से यों ही मार खाई है न, लोगों की! यही की यही मार खाता रहा है। ज़रा सा भी स्वाद मिल जाए कि चढ़ ही जाता है ऊपर!
अपूज्य को पूजने से पतन क्या पूजे जाने की (कोई मेरी पूजा करे, ऐसी) कामना होती है ? बता देना, मैं उसे दबा दूंगा। हाँ, यह जड़ काट देंगे तो फिर बंद हो जाएगा। यह कामना बहुत खतरनाक है। कामना नहीं होती है न? कभी होने लगेगी। क्या! अतः ऐसा मानकर चलना कि जोखिम है। क्योंकि लोग 'जय-जयकार' करते हैं न, तब चाय की लत की तरह लत लग जाती है। फिर जब नहीं मिलता है न, तब परेशान हो जाता है। उसके बाद कुछ नाटक करके 'जय-जयकार' करवाता है। अतः जोखिम है, सावधान रहना।
किस चीज़ की भीख है। पूजे जाने की भीख है। जब यों 'जयजयकार' करते हैं तो खुश। अरे! यह तो नर्क में जाने की निशानियाँ हैं ! यह तो बहुत ही जोखिमदारी है। ऐसी आदत पड़ जाए तो वह जाती नहीं है।