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आप्तवाणी-९
पूरा वीतराग विज्ञान हाज़िर हो जाना चाहिए। विज्ञान का अंश तो किसी को पता है ही नहीं। यह तो हमारी जो वाणी अंदर उतर गई है, वह निकलती है। और अगर कोई बड़ा तीसमारखाँ आ जाए न, तो तोड़ ही देगा, तीन ही शब्दों में तोड़ देगा। बुद्धिगम्य चलेगा ही नहीं न! बुद्धिगम्य क्या जगत् के पास नहीं है? अरे, बड़े-बड़े शास्त्र के शास्त्र कंठस्थ करने वाले लोग हैं। वे एक भी शब्द बोलेंगे तो उलझ जाओगे।
यह तो हमारा दिया हुआ 'ज्ञान' परिणामित हुआ, तो परिणामित होकर फिर उसमें उगता है वापस। हमारा दिया हुआ जो बीज के रूप में पड़ा रहता है, वह उगता है। तब 'दादाजी ऐसा कह रहे थे' ऐसे करके बात करो लेकिन यदि ऐसे वाणी निकलेगी, तो कुछ दिन तो ऐसा लगेगा कि ये 'दादाजी' जैसा ही कह रहे हैं। बाद में न जाने कहाँ ले जाएगा! कुछ दिन बाद गिरा देगा, वह तो छोड़ेगा नहीं न!
बालक बनना, 'ज्ञानी' के दूसरे लोग कुछ ऐसा अच्छा कहें न, कि 'आप बहुत अच्छा बोले, आप तो बहुत अच्छा बोले।' तब कहना कि, 'मैं तो बालक हूँ दादा का।' इतनी ही सावधानी रखनी है। दूसरे झंझट में नहीं पड़ना है।
हमारा शब्द पचकर उगेंगे तब वाणी निकलेगी। वह बात अलग है लेकिन वह शब्दशः होना चाहिए। कपोल कल्पित नहीं बोल सकते। अभी हमें जल्दी क्या है। 'दादा' के बालक रहना है या बड़े बनना है?
प्रश्नकर्ता : दादा के बालक रहना है।
दादाश्री : बस। बालक रहने में मज़ा है। 'सेफसाइड' है और जोखिमदारी नहीं है। 'दादा' को उठाना पड़ेगा। अगर वह कहेगा, 'मैं बड़ा हो गया।' तब कहेंगे, 'हाँ, तो घूमने जा बाहर।' हम कहते हैं कि 'बड़ा मत बनना।' पहले ऐसा समझाते हैं। फिर भी अगर वह कहे कि, 'नहीं, मुझे बड़ा बनना है।' तो होने देते हैं। 'बन तो फिर। मार पड़ेगी तब वापस आएगा।' अपना ज्ञान ऐसा है कि मार पड़े बगैर रहेगी नहीं। 'आपको' तो ऐसा कहना कि 'हे चंदभाई, हम आपको जानते हैं कि