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[८] जागृति : पूजे जाने की कामना
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के कारण ही है। यह कृपा का फल कहलाता है। जबकि यह जागृति अलग चीज़ है।
बाकी, इसमें जल्दबाज़ी करने जैसा नहीं है। जो ज्ञान आपने पाया है न, वह लाख जन्मों में भी किसी को प्राप्त नहीं हो सकता। यह तो जल्दी से मिल गया है इसलिए उतावला हो जाता है। यह 'लाइन' उतावला होने की है ही नहीं। यह तो स्थिरता की 'लाइन' है!
'मैं शुद्धात्मा हूँ' का लक्ष्य बैठना, उसे भगवान ने सब से बड़ी चीज़ कही है। वहाँ क्रमिक मार्ग में तो शब्द से प्रतीति होती है, उसकी भी बहुत कीमत है। शुद्धात्मा के जो गुण हैं, उन गुणों पर प्रतीति बैठ जाए कि 'यह मैं हूँ,' तो उसकी बहुत बड़ी कीमत मानी है, उसे समकित कहा है। वह प्रतीति भी सिर्फ शब्द से और आपको तो 'वस्तु' की प्रतीति हुई है, वह स्वाभाविक प्रतीति है यानी क्षायक प्रतीति कहलाती है ! यह ज्ञान बहुत काम करे, ऐसा है।
बहुत ही सावधानी से चलना चाहिए अतः यदि काम पूर्ण कर लेना हो तो सावधान रहना। हो सके तब तक किसी जगह पर बातचीत नहीं करनी है। लोगों को यह ज्ञान समझाने मत जाना नहीं तो क्या से क्या हो जाएगा! वीतराग की वाणी का एक शब्द भी बोलना, वह तो सब से बड़ी मुश्किल है!
लोग तो चिपट पड़ेंगे, लोगों का क्या? लोग तो समझेंगे कि हमें कुछ मिलेगा। कुछ प्राप्त हो जाए, उसके लिए लोग चिपट पडेंगे या नहीं? लेकिन लोगों से कह देना कि, 'इसमें मेरा काम नहीं है।' एक अक्षर भी नहीं बोलना चाहिए। वर्ना उसमें खुद का क्या से क्या हो जाएगा!
प्रश्नकर्ता : लेकिन जो अनुभव हुए हों, वे कह सकते हैं न?
दादाश्री : अनुभव तो है ही नहीं। जो सारी बातें निकलती हैं, वे हमारे कहे हुए शब्द ही निकलते हैं। वे शब्द उग निकलते हैं सारे। बाकी, अनुभव तो धीरे-धीरे होता है।