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[७] खेंच : कपट : पोइन्ट मैन
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लेकिन जब तक उसके बाधक अथवा अनुमोदक कारणों का यदि स्पष्ट विभाजन नहीं हो जाता तब तक 'इस' पटरी पर गाड़ी स्थिर रहने में और पूर्णाहुति होने में बहुत-बहुत मुश्किल नज़र आती है!
दादाश्री : अगर कहेंगे कि मुश्किल है तो फिर काम होगा ही नहीं इसलिए ऐसा कहना कि आपने यह विज्ञान ऐसा दिया है कि 'कोई मुश्किल है ही नहीं!'
'मुझे क्या?' क्या मेरे 'ज्ञान' देने के बाद आपका आत्मा चला गया? कभी भी चला नहीं जाता न? कैसा है वह आत्मा ?! बाकी, संसार में आत्मा नहीं है क्योंकि आत्मा को चोट नहीं लगती। जबकि लोगों को तो चोट लगती हैं, इसलिए वह आत्मा नहीं है। आत्मा को अपमान महसूस नहीं होता। अगर अपमान महसूस होता है तो वह आत्मा नहीं है। 'फाइल' के हिसाब चुकाने तो पड़ेंगे न? 'मुझे क्या?' करके आ जाओगे तो, उससे क्या छूट जाएँगे? फिर वे लोग मन में गाँठ रखेंगे। 'जाने दो न, है ही ऐसा।' 'मुझे क्या?' कहने से क्या लोग छोड़ देंगे? इसलिए मिलनसार बनो।
प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, इस ज़माने में सब ऐसा ही समझते हैं कि 'मुझे क्या?'
दादाश्री : 'मुझे क्या?' ऐसा यदि कोई कहे न, तो बहुत जोखिम है। 'मुझे क्या?' ऐसा कह ही कैसे सकते हैं ? यह तो हाथ झाड़ने जैसा शब्द कहलाता है। 'मुझे क्या?' कहता है तो फिर कैसा है तू?! 'मुझे क्या?' वह शब्द होना ही नहीं चाहिए।
ऐसा तो हमने भी कभी नहीं कहा कि 'मुझे क्या?' क्योंकि हम 'ज्ञानीपुरुष' हैं फिर भी 'मुझे क्या?' नहीं कहना है। अभी कोई चाहे कैसी भी परिस्थिति में आया हो तब भी 'मुझे क्या?' नहीं कहना है। हमारे कुटुंब में एक स्त्री की मृत्यु हो गई, तो उसका बेटा बताने आया। मुझे कहता है, 'दादाजी, आपको बताने के लिए ही आया हूँ।' और मैंने कहा, 'भाई, अभी बता रहा है, लेकिन देर हो गई है न!' तब उसने