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आप्तवाणी - ९
वापस पक्का करना होगा तो नहीं हो पाएगा । इसलिए क्योंकि एक बार केस उलझ गया!
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यानी अंदर 'इगोइज़म' का रस नहीं पड़ना चाहिए, बुद्धि का रस नहीं पड़ना चाहिए। उसमें फिर बुद्धि का अभाव हो जाना चाहिए, 'इगोइज़म' का अभाव हो जाना चाहिए और उसका भी अभ्यास होना चाहिए तब काम का ! तब तक धीरज रखना अच्छा !
पूर्णाहुति करनी हो, तो ...
किसी जगह पर कोई बात करते हो ? बातचीत में कहीं भी पड़ना ही मत, क्योंकि लोग तो सुनेंगे, लेकिन खुद की क्या दशा होगी ? लोगों को तो कान से सुनकर निकाल देना है लेकिन खुद को भी 'इन्टरेस्ट' आता है इसमें क्योंकि अभी 'इगोइज़म' है न, वे सभी अंदर ताक लगाकर बैठे ही रहते हैं । तो धीरे-धीरे उन्हें खुराक मिल जाती है
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अभी अंदर यह अहंकार वगैरह सब कम हुए बिना क्यों गाते रहते हो ? किसी को चार आने का भी फायदा नहीं होगा और बेकार ही गाते रहने का अर्थ ही नहीं है न! उस घड़ी वे शब्द तो सभी को अच्छे लगते हैं। लोग कहेंगे भी कि, 'बहुत अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है । ' लेकिन उससे तो खुद का 'इगोइज़म' बढ़ जाता है और लोगों को कुछ भी काम नहीं आता। सिर्फ इतना ही है कि ऊपर सुगंधी आती है ! मुँह में जलेबी गई भी नहीं, बस सुगंधी आई उतना ही !
कच्चा रखना हो तो वह रास्ता सरल है, मिठास भी अच्छी रहेगी लेकिन खुद यदि ज़रा सा भी कच्चा पड़ेगा न, तो अहंकार वगैरह सब अंदर बैठे हुए हैं ही ताक लगाकर कि कब खुराक मिल जाए। भीतर अहंकार खुराक ढूँढ ही रहा है। हर एक में अंदर अहंकार तो बैठा हुआ है ही। अहंकार चढ़ बैठे न, तो वह फिर सिर्फ दलाली ही नहीं ढूँढता। अभी तो दलाली ढूँढता है, लेकिन बाद में तो फिर मूल रकम को और आपको खुद को भी खा जाएगा ! वह तो अंदर है ही । इसलिए जानते रहना है कि जब तक इस अहंकार की हाज़िरी है तब तक और किसी