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[८] जागृति : पूजे जाने की कामना
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जाएँगे, तब स्याद्वाद वाणी निकलेगी। तब तक तो जोखिमदारी है। बहुत ही जोखिमदारी, अत्यंत जोखिमदारी!
जहाँ 'जागृति' है, वहाँ कषाय को 'पोषण' नहीं
क्रोध-मान-माया-लोभ की शक्तियाँ अंदर बैठी हुई रहती हैं। वे कहती हैं, 'कब दादा को छोड़े और इसे पकड़ लूँ'। वे किसी भी रास्ते से आड़ा-टेढ़ा दिखाकर भी इसे छुड़वाने को तैयार रहते हैं क्योंकि जब तक ये खड़े हैं, जब तक साबुत हैं, तब तक निर्वंश नहीं होंगे। तब तक बोलने जैसा नहीं है। वह वाणी तो हवा-पानी हो जाएगी (भाप बनकर उड़ जाएगी)। इसलिए बोलना नहीं है।
जिन दोषों के उदय में आने से उनमें मिठास लगे, तो ऐसा कहा जाएगा कि उसे खुराक मिल गई। क्रोध-मान-माया-लोभ को खुराक मिल जाए। फिर तो वे उस तरफ ज़ोरदार शक्ति का उपयोग करते हैं! यह तो, खुराक नहीं दी थी, इसलिए वे कुछ दिन भूखे रहे थे न, इसलिए निर्बल हो गए थे। तीन साल तक खुराक नहीं दी जाए और वे भूखे रहें तो तीन साल के बाद चले जाएँगे लेकिन लोग अंदर थोड़ा-थोड़ा देते हैं। बहुत दयालु हैं न, बहुत लागणी वाले हैं न! कहेंगे, 'लो! दाल-चावल और यह थोड़ा लो। अरे, दादा का प्रसाद तो लो।' यानी थोड़ी-थोड़ी खुराक देते हैं। यदि बिल्कुल भूखा रखा जाए तो तीन साल से ज्यादा नहीं टिक सकेंगे। वे चले गए तो सर्वस्व, पूरा साम्राज्य अपने हाथ में आ जाएगा।
क्या ऐसा पता चलता है कि वे कषाय खा जाते हैं? पता चलता है कि यह कौन खा गया? कषाय ऐसे खा जाते हैं। अगर महीने में दो बार ही खाना मिले, तो वापस जैसे थे वैसे के वैसे मज़बूत हो जाते हैं।
हमारे पास से तो कभी भी खाकर नहीं गए। उसके बाद ही तो चले गए न! फिर से हमने तय किया हो कि 'इन्हें नहीं खिलाना है' तो नहीं खाते। जागृति रहनी चाहिए।
__ अभी तक वे सारे कषाय बैठे हुए हैं, चले नहीं गए। मैंने उन्हें मारा भी नहीं है। मैं कोई हिंसक नहीं हूँ। यानी कि वे चले नहीं गए हैं।