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[८] जागृति : पूजे जाने की कामना
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कमज़ोर होती जाती है और उपयोग रहने लगता है। सत्संग कम होगा तो उपयोग आवरित होता रहेगा।
___ घर में अगर चोर घुस जाए न, तो भीतर आत्मा है तो तुरंत ही समझ में आ सकता है ऐसा है। लेकिन समझ में क्यों नहीं आता? 'अपने यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं है' ऐसा पक्षपात है, इसलिए उस तरफ का आवरण है और इसीलिए यह सब जानने नहीं देता। वर्ना तुरंत समझ में आ जाए।
'किसकी अंगूठी अच्छी है ?' पूछेगे तो तुरंत उँगली ऊँची करेगा। क्योंकि ऐसा पक्षपात है कि 'खुद की अंगूठी अच्छी है!'
__इस तरह से खुद के प्रति खुद को पक्षपात है, इसलिए मूर्च्छित किए बिना नहीं रहता। उसका खुद को पता ही नहीं चलने देता न ! 'मैं चंदूभाई हूँ' उसका भान तो हमने तोड़ दिया है, और दिया हुआ आत्मा भी खुद के पास रहता है लेकिन जब उदय के चक्कर घेर लेते हैं तब पता नहीं चलता कि 'मेरी क्या भूल हो रही है ? कहाँ भूल हो रही है ?!'
निरा पूरा भूल का ही तंत्र है न! उसी वजह से तो खुद की सत्ता आवृत पड़ी हुई है। आत्मा तो दिया है लेकिन सत्ता पूरी ही आवृत होकर पड़ी हुई है! और उस वजह से वचनबल व मनोबल भी नहीं खिल पाता। वर्ना वचनबल तो कैसा खिल जाए! अभी तो विषय पर पक्षपात है, कपट पर पक्षपात है, अंहकार पर पक्षपात है। इसलिए उपयोग जागृति रखो, सत्संग का ज़ोर रखो, तो ये सभी व्यवहार की भूलें दिखाई देंगी
और हर तरफ उपयोग रहेगा। सत्संग में नहीं आएँगे तो क्या होगा? उपयोग रुक जाएगा। उसका क्या कारण है? पक्षपात ! और वह खुद को भी पता नहीं चल पाता।
जागृति, वह 'ज्ञान' नहीं है। जागृति तो, जागृति है। 'ज्ञान' अलग चीज़ है। जागृति तो, नींद से जगना, वह जागृति है। ऐसा कहा जा सकता है कि अब नींद नहीं रही! 'ज्ञान' तो बहुत बड़ी चीज़ है। सभी ओर का जो उपशम हुआ पड़ा है न, वह क्षय हो जाए उसके बाद फिर 'ज्ञान'