Book Title: Aptvani 09
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 465
________________ ४१४ आप्तवाणी-९ कहा, 'नहीं, आपको आने की ज़रूरत नहीं है।' फिर भी मैं वहाँ पाँच मिनट के लिए जाकर आया, और आकर फिर नहाया भी। अतः व्यवहार में 'मुझे क्या?' ऐसा नहीं चलता। व्यवहार, व्यवहार की तरह होना चाहिए न! कहीं आत्मा तो नहीं चला जाता न! _ 'मुझे क्या?' कहना वह तो बहुत बड़ा गुनाह कहलाता है। 'मुझे क्या!' वह शब्द है ही नहीं हमारी डिक्शनरी में। 'मुझे क्या?' वह शब्द तो घर पर भी नहीं कहना चाहिए, बाहर भी नहीं कहना चाहिए, यहाँ सत्संग में भी नहीं कहना चाहिए। 'मुझे क्या?' तो कहा जाता होगा? फिर तो अहंकार जाएगा ही नहीं। वह अहंकार तो मज़बूत हो जाता है। फिर वह जाता नहीं है, टूटता ही नहीं है कभी भी। बहन हो या भाई हो या माँ हो, लेकिन यह तो कहेगा, 'मुझे क्या?' प्रश्नकर्ता : किसी भी व्यक्ति के प्रति यह 'मुझे क्या?' ऐसा जो भाव है, वह क्या सूचित करता है? दादाश्री : नालायकी ! 'मुझे क्या?' ऐसा कह ही कैसे सकते हैं ? हमने उनके यहाँ जन्म लिया तो 'मुझे क्या?' ऐसा कहीं कहा जाता होगा? ! वह तो गुनाह है। 'मुझे क्या?' ऐसा कहना ही नहीं चाहिए। घर में तो रखना ही नहीं चाहिए ऐसा, लेकिन बाहर भी नहीं रखना चाहिए। वह सब तो गुनाह है। प्रश्नकर्ता : वह किस प्रकार का गुनाह कहलाता है ? दादाश्री : पेपर ही सही नहीं है, तो फिर भूल ढूँढने को रहा ही कहाँ?! भूल तो, अगर पेपर सही हो तब भूल मानी जाती है। 'मुझे क्या?' बोलता है वहाँ पर पेपर ही सही नहीं है, पेपर ही 'रोग' है। हंड्रेड परसेन्ट रोंग! प्रश्नकर्ता : आपका वाक्य है कि "जो ऐसा कहता है कि 'मुझे क्या?' तो वह भगवान का भी गुनहगार है और कुदरत का भी गुनहगार

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