________________
४२६
आप्तवाणी-९
पहले कभी इसमें मिठास बरती थी? जिस दिन मिठास बरते, उस दिन वह उगता है और फिर से मिठास बरते तो इतनी बड़ी कोंपलें फूटेंगी। जैसे आम की कोंपल निकलती है न! दो पत्तियों से इतनी बड़ी, दुसरी दो पत्तियाँ उगें तो इतना बड़ा हो जाता है, इस तरह बढ़ता जाता है। हम मिठास का पानी पी गए कि बढ़ गया। क्या चंदूभाई, आप तो
ओहोहो, ज्ञानी ही हो गए।' तो यह सुनकर अगर मिठास आई की उगा अंदर!
__ अब अगर ऐसा हो जाए न, तो वहाँ पर दूसरा उपाय करना, तुरंत मिटा देना चाहिए। अपने यहाँ उपाय है। रोग तो स्वाभाविक तौर पर उत्पन्न हो जाता है। जो बीज पड़ा है, उसका रोग तो उत्पन्न हो जाता है लेकिन उपाय है अपने यहाँ। अपने यहाँ यह 'विज्ञान' उपाय रहित नहीं है न?!
प्रश्नकर्ता : नहीं! यहाँ के एक-एक वाक्य ऐसे हैं कि सभी रोगों को खत्म कर दें।
दादाश्री : हाँ, उपाय है अपने यहाँ, इसका मूल इसमें से उगता है कि 'बहुत अच्छा हो गया है' उसकी मिठास बरती कि फूटा! और यह चीज़ मीठी है न? मोक्ष की तरफ का भुला दे, ऐसी।
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह जोखिम है, ज़बरदस्त जोखिम है, मोक्षमार्ग के लिए।
दादाश्री : जोखिम, आत्मघाती! कोई ऐसा कहे तब कहना, 'भाई, मेरी बात तो मैं ही जानता हूँ, आपको क्या पता चलेगा?' तब फिर वह ठंडा हो जाएगा। हमें क्या गुरु बन बैठना है?
प्रश्नकर्ता : दादा, छूटने जैसा है इसमें से।
दादाश्री : बहुत बड़ा फँसाव! और फिर भी वैसा उदय आए तो लोगों की 'हेल्प' करनी चाहिए, वह तो अपना काम है लेकिन उदय में आया हुआ होना चाहिए। गुरु बन बैठने में फायदा नहीं है, उदय में