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[६] लघुतम : गुरुतम
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प्रश्नकर्ता : 'प्रभुता से प्रभु दूर' कहते हैं न !
दादाश्री : हाँ, इसलिए हमने कहा है कि हम अपने मोक्ष में रहते हैं और लघुतम रहते हैं। फिर भी वैभव हम गुरुतम का भोगते हैं। हमारी बाह्याकृति, वर्तन वगैरह सारा लघुतमवाला है । जगत् के लिए तो मैं सब से छोटा हूँ, लघुतम पुरुष हूँ और जिसे यह 'ज्ञान' जानना है, उसके लिए तो मैं उच्चतम हूँ, गुरुतम हूँ । अतः अगर तुम्हें मोक्ष चाहिए तो मैं गुरुतम हूँ। हमसे बड़ा कोई नहीं है और अगर तुम्हें संसार में बड़ा बनना है तो मैं लघुतम हूँ। अब जिसे मोक्ष में जाना है, उसे अगर मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि 'गुरुतम हूँ' तो फिर उसकी गाड़ी आगे चलेगी ही नहीं न! और जगत् में लोगों को क्या बनना है ?
प्रश्नकर्ता : गुरुतम होना है।
दादाश्री : ऐसा आपने कहाँ देखा है ?
प्रश्नकर्ता : खुद में देखा है न!
दादाश्री : लेकिन बाहर के लोगों में तो ऐसा नहीं करते होंगे न ? बाहर कोई व्यक्ति होगा गुरुतम भाववाला ?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : ऐसा ? सभी उसी में हैं न? वे तो यही जानते हैं कि यही आत्मा है इसलिए इसी को गुरुतम बना दूँ। हर एक को गुरुतम में ही बैठने की इच्छा है । सभी इसी में ! गुरुतम चाहिए सभी को । 'बाप 'जी' कहा कि खुश । उससे फिर गुरुतम बढ़ता है । अब जाना है उन्हें मोक्ष में, और बनते हैं गुरुतम | वह विरोध है या अविरोध ? तो क्या तेज़ी से मोक्ष में जा सकेंगे ? वह तो भटकने की निशानी ही कहलाएगी न ! क्योंकि जो व्यवहार में गुरुतम बनने गए, वे सभी गिर गए। व्यवहार में जितने भी लोग गुरुतम बनने गए, वे सभी फँस गए। बोलो, फँस गए या नहीं फँसे? और जो लघुतम बने वे ही पार निकले। बाकी, गुरुतम बनना हो तो यह रास्ता है ही नहीं । यह तो मार खाई और आखिर में