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आप्तवाणी-९
दिखाई देता है वैसा ही बोलते हैं न, लोग? उसमें उनका क्या दोष है ? आपको समझ लेना है कि उस बेचारे को दिखाई ही ऐसा देता है, इसलिए यह ऐसा बोल रहा है। तो आपको कहना है कि, 'हाँ भाई, तेरी दृष्टि से यह ठीक है।' तब आपको ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि, 'नहीं, हमारी दृष्टि से हमारा ठीक है।' इतना ही कहना कि, 'तेरी दृष्टि से यह ठीक है।' नहीं तो वापस कहेगा कि, 'रुको, रुको, आपकी दृष्टि से क्या है वह मुझे बताओ।' यों बल्कि वह वापस बिठाकर रखेगा। इसके बजाय तेरी दृष्टि से ठीक है, कहकर आपको चलने ही लगना है!
यों हम दिखाई देते हैं भोले लेकिन हैं बहुत पक्के। बालक जैसे दिखाई देते हैं, लेकिन पक्के हैं। किसी के साथ हम बैठे नहीं रहते, चलने ही लगते हैं। हम हमारी 'प्रोग्रेस' कहाँ छोड़े? _ 'ज्ञानीपुरुष' के पास हित की बात होती है। उनसे दो शब्द समझ लें न, तो बहुत हो गया! दो शब्द समझ में आएँ, और उनमें से एक ही शब्द यदि हृदय में उतर जाए तो वह शब्द मोक्ष में पहुँचने तक उसे छोड़ेगा नहीं। इतना वचनबलवाला होता है, इतनी वचनसिद्धि होती है उस शब्द के पीछे !
छूटने के लिए ग़ज़ब की खोज इसलिए हमने यह कहा है न कि 'भाई, आप सब का सही है लेकिन हमारा यह स्पर्धावाला नहीं है। यह बेजोड़ चीज़ है। तुझे हल्का कहना हो तो हल्का कह, भारी कहना हो तो भारी कह लेकिन यह है बेजोड़! इसकी स्पर्धा में कोई नहीं है।'
हम किसी के साथ स्पर्धा में नहीं हैं। हमें कोई पूछे कि, 'भाई, इन फलाँ लोगों का कैसा है ?' तो हम तुरंत ऐसा कह देते हैं कि, 'हमें उनकी तरफ कोई राग-द्वेष नहीं है।' जैसा है वैसा कह देते हैं। हममें स्पर्धा नहीं है। लेना-देना ही नहीं है न! और इस स्पर्धा में हमें नंबर नहीं लाना है। मुझे क्या करना है नंबर का? मुझे तो काम से काम है।
हमारे पास भी जब टेढ़ा बोलने वाले आते हैं तब मैं कहता हूँ