________________
३८८
आप्तवाणी-९
मैंने सोचा, 'स्वाद मत निकालो।' यानी तंत रखता है ! ऐसा कहें तो ऐसा
और ऐसा कहें तो ऐसा! आपत्ति और बुरा मानने वाला जगत् ! उसे तो आपत्ति उठानी ही है, बुरा लगना ही है, जबकि हमें तो, बल्कि अगर रुकावटें आएँ या बुरा लगे ऐसा हो तब भी उसे हटा देते हैं।
अब हमें 'दादा' के ज्ञान को तो रौशन करने का प्रयत्न करना है और फिर भी रौशन नहीं हुआ, तो ठीक है। उसका कोई तंत थोड़े ही पकड़ना है ? हमारे प्रयत्न पॉज़िटिव होने चाहिए। संयोग नेगेटिव करे, तो हम क्या कर सकते हैं? कहीं ऐसी पकड़ पकड़नी चाहिए? लेकिन नहीं, बस तंत ही रहता है कि हराना ही है ! हार-जीत के खेल! हम तो, किसी को हराने को भयंकर जोखिम मानते हैं। बाद में फिर वह हमें हराने की तैयारी करेगा, इससे उसे जितवाकर भेज दो! तो परेशानी नहीं। सामने वाले को जितवाकर भेज दे तो फिर है कोई झंझट? हमारी ओर से कोई बात ही नहीं रहेगी न! फिर वह और कोई व्यापार शुरू कर देगा। उसे हराएँगे तो हमारी तरफ से सारी झंझट खड़ी रहेगी न? जितवाकर भिजवा देंगे तो दूसरा व्यापार शुरू कर देगा वह !
इसलिए यह 'अक्रम विज्ञान' बहुत अच्छा है न! इन 'दादा' के कहे अनुसार चलेंगे न, तो इस पूरी भट्ठी से छूट जाएँगे, भीतर से नाटकीय रहना है हमें और फिर इन लोगों के साथ व्यवहार का हल आएगा। पूरे व्यवहार का समाधान नहीं करेंगे तो ये लाल झंडी दिखाएँगे। यहाँ तो कोई लाल झंडी दिखाता ही नहीं है न! रास्ता ही क्लिअर है, यह 'विज्ञान' ही अलग प्रकार का है। हमें किसी से कुछ भी लेने का कोई कपट नहीं है, यह निर्विवाद बात है और किसी से हमें ऐसा कुछ है नहीं कि, 'यह हमारा और यह पराया' यह भी निर्विवाद बात है तो फिर हमें क्या परेशानी ?
कोर्स, 'अक्रम विज्ञान' का ____ और यहाँ, यह तो 'अक्रम विज्ञान' है, अलग ही प्रकार का, अलग ही तरह का विज्ञान है। कैसा लाभकारी है न?