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[७] खेंच : कपट : पोइन्ट मैन
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दादाश्री : निश्चय तो मोक्ष का है ही, लेकिन बीच में दखलें हैं न! 'केवळ निज स्वभावतुं अखंड वर्ते ज्ञान।' निश्चय तो है ही, लेकिन वह निरंतर होना चाहिए न? मोक्ष तो बरतता है, लेकिन अखंड रहना चाहिए न? खंडित नहीं चलेगा न?
प्रश्नकर्ता : लेकिन यह हित या अहित, वे दोनों 'आफ्टर ऑल' सांसारिक 'डिपार्टमेन्ट' का हुआ न?
दादाश्री : हाँ, लेकिन उस सांसारिक को ही छोड़ना है। मोक्षमार्ग में तो ऐसा है ही नहीं न! और क्या? सांसारिक अहित को तो छोड देना
है।
इंसान यदि समझने बैठे न और मिठाई खाने की आदत न हो, तो यह समझ में आ सके ऐसा है।
प्रश्नकर्ता : अब वह खुद चतुराई करता है, खुद की वह चतुराई खुद छोड़े कैसे?
दादाश्री : ऐसा उसे खुद को पता नहीं चलता। हम कहें कि, 'आप चतुराई कर रहे हो' तब भी वह नहीं मानता।
प्रश्नकर्ता : मोक्षमार्ग पर चलना और इन दोषों से मुक्त होना बहुत मुश्किल हो जाता है।
दादाश्री : मुश्किल नहीं है। इस तरह भावना करते-करते पहुँच पाएँगे। जिन्हें ये दोष निकालने हैं उन्हें देर नहीं लगेगी। मुश्किल तो है ही नहीं न! हर एक इंसान में ऐसा कपट होता है। इस कलियुग में कपट कहाँ नहीं होगा?
प्रश्नकर्ता : यह तो सामने वाले व्यक्ति के साथ व्यवहार में कपट आया, लेकिन अब खुद की प्रकृति और आत्मा, वहाँ भी कपट काम करता रहता है न?
दादाश्री : नहीं, उसमें नहीं।