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[६] लघुतम : गुरुतम
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फिर भी लोगों के मन में भ्रम है कि 'दादा सब जानते हैं !' लेकिन क्या जानते हैं ये? कुछ भी नहीं जानते। 'मैं' तो 'आत्मा' की बात जानता हूँ, "आत्मा' ज्ञाता-दृष्टा है," वह जानता हूँ। 'आत्मा' जो-जो देख सकता है वह 'मैं' देख सकता हूँ लेकिन और कुछ नहीं आता। अहंकार होगा तब आएगा न! अहंकार बिल्कुल ही निर्मूल हो गया है। उसकी जड़ तक भी नहीं बची है कि इस जगह पर था! और उस जगह पर से उसकी कोई सुगंधी तक भी नहीं आती। इतनी हद तक जड़ें निकल चुकी हैं। उसके बाद का वह पद कितना मज़ेदार होगा!
यह तो हमारी कितने ही जन्मों की साधना होगी कि एकदम से फल हाज़िर हो गया! बाकी, इस जन्म में तो कुछ भी नहीं आता था। निपुणता तो मैंने किसी इंसान में देखी ही नहीं है।
यह जो मोची होते हैं, उसे कम आता है, वह जूते बनाता है लेकिन बारह महीनों नुकसान ही नुकसान करता है। उसी तरह इस काल के जीव भी नुकसान ही करते हैं। ज़रा से निपुण होते हैं तो वे फायदे की बजाय नुकसान ज़्यादा करते हैं। सारा चमड़ा बिगाड़ देते हैं। जूते भी सिलता है और पाँच सौ जूतों का चमड़ा बिगाड़ देता है ! वहाँ क्या नफा हुआ? मेहनत की और बेकार ही नुकसान हुआ। यानी मुख्य व्यापार में नुकसान होता है। वह तो पुण्य के अधीन है। उसमें ये लोग क्या कमाने वाले थे? यह तो पुण्य की कमाई है! जबकि यह अक्कल के बोरे जूते ही घिसते रहते हैं ! इसलिए हम तो शून्य ही हैं। कुछ आता ही नहीं था ऐसा समझकर चलो न! सब कैन्सल करके नीचे नये सिरे से रकम लिखनी है। कौन सी रकम? हमारी शुद्धात्मा की रकम पक्की! निर्लेप भाव, असंग भाव सहित ! यह तो यहाँ पर संपूर्ण रकम दी हुई है। 'दादा' ने शुद्धात्मा दिया तब शुद्धात्मा हुए। नहीं तो कुछ था ही नहीं, पैसे भर का भी सामान नहीं था!
जगत् जीता जा सकता है, हारकर इस 'ज्ञान' के बाद आपको निरंतर शुद्धात्मा का ध्यान रहता