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आप्तवाणी-९
है। कहता है, 'इस बेचारे से हो नहीं पाता।' पहले दया आती है और फिर तिरस्कार। यानी यह सब गर्वरस से है। वह अपनी ही भूल है न?! उसमें भगवान क्या करें?! इसलिए कृपालुदेव ने कहा है, ।
'दस वर्षे रे धारा उल्लसी, मट्यो उदयकर्मनो गर्व रे!' (दस वर्ष की उम्र में धारा उल्लसित हुई, मिटा उदयकर्म का गर्व रे!)
उदयकर्म का गर्व क्या है, यह समझता है क्या एक भी इंसान?! हिन्दुस्तान में कौन समझ सकता है इसे! यह तो जब हम समझाएँ तब समझ में आता है।
___ 'उदयकर्म अर्थात् यह सामायिक उदयकर्म कर रहा है, मैं नहीं कर रहा हूँ' तो उसे गर्व नहीं है लेकिन लोग तो गर्वरस चखे बगैर रहते नहीं न! चखते हैं या नहीं चखते? 'मैंने चार सामायिक की।' तो चार क्यों कहते हो? तब यह कहता है, 'इसकी एक ही हुई है।' मैं समझ गया, मोक्ष की तैयारी की! तूने यह!
गर्व लेने से क्या हुआ? कि गरदन फँसी। मोक्ष का तो कहाँ गया, लेकिन मोक्ष के लिए तो लाख जन्मों के तूने अंतराय डाल दिए। सामायिक का गर्व किया! संसार का गर्व होता है। कहेगा, 'हम फलानी जगह पर गए।' ओहोहो, वहाँ जाने में भी गर्व लिया?! जैसे न जाने क्या कमा लिया!? जैसे चिंता खत्म न हो गई हो! इसे गर्व कहते हैं।
अब, इसलिए इन लोगों ने कहा है कि "यही गले में फांसी।" यह सामायिक की, प्रतिक्रमण किया, यह मैंने त्याग दिया, ऐसा बोले, वह आपके गले में फांसी है, तूने गर्वरस चखा!
अब, सत् पुरुष को गर्व नहीं होता, इसका मतलब क्या है? वे खुद अपने हाथों से चाहे कितनी भी शांति दें, फिर भी उन्हें ऐसा गर्व नहीं होता कि 'मैं दे रहा हूँ, मैं यह शांति दे रहा हूँ' ऐसा नहीं रहता। वह ऐसा जानते हैं कि 'मैं तो निमित्त हूँ और उसके घर की (उसकी खुद की) शांति उसके लिए अनावृत कर देता हूँ।'