________________
३२६
आप्तवाणी-९
गर्व, स्व-प्रशंसा के समय... 'जागृति' प्रश्नकर्ता : स्व-प्रशंसा और गर्वरस किसे कहते हैं ? और उसे चखने की आदत का कारण क्या है ? उसे टालने का उपाय क्या है?
दादाश्री : स्व-प्रशंसा अर्थात् कोई कहे कि, 'तू बहुत समझदार है, और तू बहुत लायक इंसान है, और तेरे जैसा इंसान कहाँ से मिलेगा!' वह स्व-प्रशंसा ! ऐसा कहने पर फिर बाकी सबकुछ भूल जाता है। आपको पूरा दिन काम करवाना हो तो वह करता भी है।
और गर्वरस अर्थात् 'मैंने कितना अच्छा किया, कैसे यह किया।' जो भी काम किया हो न, वह 'कितना अच्छा है' यों उसका रस चखता है, वह गर्वरस!
गर्वरस चखने की आदत का कारण क्या है ? बस, उसके पीछे अहंकार है, 'इगोइज़म' है कि 'मैं कुछ हूँ।'
उसे टालने का उपाय क्या है ? वह तो, आपमें इस 'ज्ञान' के बाद उसे तो टाल ही दिया है। अब जो 'डिस्चार्ज' रूप में बचा है, वही बचा है न! 'उससे' 'हमें' दूर रहना है।
प्रश्नकर्ता : दादा, उस 'डिस्चार्ज' में भी यों जागृत कैसे रहना है?
दादाश्री : यह 'चंदूभाई' जो करते हैं, वह 'हमें देखते रहना है। 'चंदूभाई' गर्वरस चखते हैं, उसे भी देखते रहना है और स्व-प्रशंसा सुनते हुए खुश होते हैं, वह भी देखते रहना है।
प्रश्नकर्ता : और खुद ने कुछ अच्छा कार्य किया हो तो खुद औरों से कहता भी है, दस लोगों को कह आता है कि, 'मैंने ऐसा किया, ऐसा किया।' ऐसे कह दे तो क्या करना चाहिए?
दादाश्री : हाँ, लेकिन कहेगा तभी उसे गर्वरस होगा न! गर्वरस उसे कहते हैं कि जब औरों से कहने पर गर्वरस उत्पन्न होता है। तब उसे मज़ा आता है और कोई सो गया हो न, तो थोड़ी देर बाद उसे उठाकर कहता है, तभी छोड़ता है!