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आप्तवाणी-९
वह तो बहुत बड़ा कैफ है। शराबी पर तो एक बालटी पानी डाल दी जाए न, तो तुरंत कैफ उतर जाता है लेकिन इनका कैफ नहीं उतरता। ऊपर से भगवान आएँ तो भी कैफ नहीं उतरता। भगवान के बारे में भी कल्पना करेगा! क्योंकि, 'मैं जानता हूँ' का कैफ चढ़ा है न! ऐसे लोगों का बेड़ा कब पार होगा?!
और साथ-साथ उसके पीछे फिर मान की भावना! गर्वरस चखने की आदत तो है ही न या गर्वरस चखना छोड़ देते होंगे?! गर्वरस छोड़ते नहीं है न! वह तो बहुत मीठा होता है। 'मैंने ऐसा किया और वैसा किया' कहकर गर्वरस चढ़ता ही जाता है। खुद का किया हुआ किसी को कहकर बताता है, उस घड़ी उसे कितना आनंद होता है। बहुत आनंद होता है। नहीं?
अहम् रखना 'जानता नहीं' का किसी भी चीज़ का धर्म कब प्राप्त होता है ? कि महान पुरुषों के वचनों का आराधन किया जाए और उसमें भी अगर 'मैं कुछ भी नहीं जानता,' ऐसे भाव से किया जाए तो पुण्य बंधता है। 'मैं जानता हूँ' इस भाव से किया जाए तो पाप ही बंधता है।
प्रश्नकर्ता : लेकिन 'मैं जानता हूँ' उस भाव से ही हो रहा था।
दादाश्री : नहीं तो फिर भी, मेरा कहना है कि यह सब विरुद्ध कहलाता है। यह तो लोग सिर्फ मानते हैं कि हम पुण्य कर रहे हैं। उतना अच्छा है, रमी खेलने जाएँ, उसके बजाय अच्छा है यह!
प्रश्नकर्ता : लेकिन पाप किस तरह से होता है? पाप तो होता ही नहीं न? उसका ऐसा आशय ही नहीं है। किसी को दुःख भी नहीं होता।
दादाश्री : दु:ख नहीं देना है, गर्वरस चखना है इसमें। सब से बड़ा गर्वरस चखता है, 'मैं जानता हूँ, मैं समझता हूँ !' उसके बाद जोजो किया जाता है, उस सारी बात में माल नहीं है। कहने जैसा नहीं है।