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आप्तवाणी-९
प्रश्नकर्ता : मिठास लगती है लेकिन वह गर्वरस नहीं लेने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : करना कुछ भी नहीं है। अपना ज्ञान जानना है। गर्वरस को चखने वाले 'हम' नहीं हैं ! 'हम' कौन हैं, उसका लक्ष्य रखना पड़ता है। उसमें कुछ करना नहीं होता न!
अपना 'ज्ञान' है ही ऐसा कि गर्वरस चख ही नहीं पाता और चख ले तो तुरंत प्रतिक्रमण कर लेता है। अगर कुछ चिपट जाए, पहले के अभ्यास से वृत्तियाँ उस तरफ मुड़ जाएँ, तो तुरंत उखाड़ देता है। अर्थात् अपने 'ज्ञान' लिए हुए 'महात्मा' गर्वरस नहीं चखते। बाकी सभी लोग गर्वरस चखते हैं क्योंकि रास्ता नहीं मिला है न!
_ 'ज्ञानी,' गारवता में नहीं हैं प्रश्नकर्ता : अब गारवता, इस गारवता शब्द को ज़रा और अच्छी तरह समझाइए न!
दादाश्री : आप गारवता किसे कहते हो? गारवता का अर्थ क्या है ? गारवता, वह अलग चीज़ है। गारवता तो गाय में भी होती है, भैंस में भी होती है और इंसान में भी होती है। गारवता हर एक इंसान में होती है और अपने इन महात्माओं में भी होती है। अभी तक तो लोग निरी गारवता में ही पड़े हैं।
अब गारवता का अर्थ क्या है ? गारवता प्रत्यक्ष देखनी हो तो- मिलें होती हैं न, वहाँ पर गड्ढे होते हैं, तालाब जैसे, बिल्कुल बदबूदार होते हैं, वे। मिल का पानी जाने से वे गड्ढे पानी से भरे रहते हैं लेकिन पानी मिल का है इसलिए क्षारवाला है न, इसलिए उस क्षार के पानी से गड्ढे के अंदर की मिट्टी नरम पड़ जाती है। उससे अंदर कीचड़ बन जाता है। अंदर की मिट्टी सड़ जाती है, बिगड़ जाती है। वहाँ सड़न हो जाती है। इसलिए ऊपर इतना थोड़ा सा ही पानी होता है लेकिन अंदर बहुत सारा कीचड़ होता है, दो-दो फुट का! और काला, अंधेरे जैसा पानी होता है! अब भैंसें हैं न, वे गर्मियों में सख्त गर्मी में ठंडक का रास्ता